वेदों में विविध शस्त्रास्त्र
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वेदों में विविध शस्त्रास्त्र

आचार्य विजय आर्य
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Jul 7, 2025
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शस्त्र और अस्त्र : जो धनुष वा अन्य यन्त्र के द्वारा फेंका जाता है, उसे अस्त्र (Missile) कहते हैं। जिन्हें हाथ में लेकर लड़ा जाता है, उन्हें शस्त्र कहते हैं, जैसे - असि (तलवार), कुन्त (भाला) आदि। इसमें भाला दूर फेंकने पर अस्त्र का कार्य भी कर सकता है।

प्रश्न - क्या वेद में शस्त्रास्त्र बनाने की विधि है?

उत्तर - वेद में शस्त्रास्त्र बनाने की विधि नहीं है, परंतु भौतिक और रासायनिक विज्ञान का मूल है, जिसके आधार पर अस्त्र-शास्त्र निर्माण किए जा सकते हैं, परंतु निर्माण करने की कोई विस्तृत विधि नहीं है। हाँ, उसमें विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और उनके गुण अथवा प्रभाव हैं। यही अस्त्र रामायण और महाभारत के युद्ध में भी प्रयुक्त हुए थे। शस्त्रास्त्र बनाने की विस्तृत विधि ऋषियों और विद्वानों द्वारा वेद के आधार पर लिखे गए उपवेद - धनुर्वेद में लिखी बतायी जाती है, परंतु यह ग्रन्थ बहुत काल से लुप्त है। वर्तमान में उपलब्ध संक्षिप्त धनुर्वेद वास्तविक नहीं है अथवा अपूर्ण है।

दिव्यास्त्र

वेदों में अस्त्र (Missile) के लिए हेति और मेनि शब्द हैं। दिव्य अस्त्रों का प्रभाव असाधारण होता है। ये प्राकृतिक शक्तियों से जन्य होते हैं, जैसे - विद्युत्, अग्नि, वायु आदि से जन्य और विज्ञान के विशिष्ट विद्वानों द्वारा निर्मित होते हैं। इन दिव्य अस्त्रों और अन्य शस्त्रों का उल्लेख वेदों में मिलता है -

(१) आग्नेयास्त्र या अग्निबाण : आग्नेय अस्त्र को अग्निबाण भी कहते थे। इसके प्रयोग से जलती हुयी आग चारों ओर फैल जाती थी। यह अग्नि के साथ धुआँ भी फेंकता था, जिससे शत्रु मूर्छित हो जाते थे। अथर्ववेद में वर्णन है कि आग्नेय अस्त्र के प्रयोग से शत्रु मूर्छित हो गए और इन्द्र वा राजा ने उनके सिर काट लिए -

मू॒ढा अ॒मित्रा॑श्चरताशी॒र्षाण॑ इ॒वाह॑यः। तेषां॑ वो अ॒ग्निमू॑ढाना॒म् इन्द्रो॑ हन्तु॒ वरंवरम् ॥ - अथर्ववेद ६.६७.२

- (मूढाः अमित्राः) हे व्याकुल वा मूर्छित शत्रुओं ! (अशीर्षाणः) बिना शिरवाले [शिर कटे] (अहयः इव चरत) साँपों के समान चेष्टा करो। (इन्द्रः) प्रतापी वीर राजा (अग्निमूढानाम् तेषां वः) अग्नि [आग्नेय शस्त्रों] से व्याकुल हुए उन तुम्हारे (वरंवरम् हन्तु) श्रेष्ठ-श्रेष्ठ नायक को चुनकर मारे ॥२॥

इनके प्रयोग से नेत्र से अन्धा होने का भी वर्णन है। शत्रु अन्धे हो गए और सेना पराजित हो गई -

इन्द्रः॒ सेनां मोहयतु म॒रुतो॑ घ्न॒न्त्वोज॑सा। चक्षूंष्य॒ग्निरा द॑त्तां॒ पुन॑रेतु॒ परा॑जिता ॥ - अथर्ववेद ३.१.६

पदार्थभाषाः - (इन्द्रः सेनाम् मोहयतु) प्रतापी सूर्य [शत्रु] सेना को व्याकुल कर दे। (मरुतः) दोषनाशक पवन के झोंके वाले (ओजसा घ्नन्तु) शस्त्रास्त्र के बल से नाश कर दें। (अग्निः) अग्नि-आग्नेयास्त्र (चक्षूंषि) नेत्रों वा दर्शन-शक्ति को (आ, दत्ताम्) निकाल देवे। [जिससे] (पराजिता) हारी हुई सेना (पुनः एतु) पीछे चली जावे ॥६॥

भावार्थभाषाः - युद्धकुशल सेनापति राजा अपनी सेना का व्यूह ऐसा करे, जिससे उसकी सेना सूर्य, वायु और अग्नि वा बिजुली और जल के प्रयोगवाले अस्त्र, शस्त्र, विमान, रथ, नौकादि के बल से शत्रुसेना को नेत्रादि से अङ्ग-भङ्ग करके सर्वदा हराकर भगा दे ॥६॥

(२) वायव्यास्त्र - इसको मारुत अस्त्र भी कहते हैं। इसके प्रयोग से आंधी जैसी तेज हवा चलने लगती है और शत्रु किंकर्तव्यविमूढ हो जाते हैं। अथर्ववेद में वर्णन है कि इन्द्र इस अस्त्र के प्रयोग से शत्रुओं को इधर-उधर भगा दे -

इन्द्र॒ सेनां मोहया॒मित्रा॑णाम्। अ॒ग्नेर्वात॑स्य॒ ध्राज्या॒ तान्विषू॑चो॒ वि ना॑शय ॥ - अथर्ववेद ३.१.५

पदार्थभाषाः - (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (अमित्राणाम् सेनाम् मोहय) शत्रुओं की सेना को व्याकुल कर दे। (अग्नेः वातस्य ध्राज्या) अग्नि के और पवन के झोंके से (विषूचः) सब ओर फिरनेवाले अथवा विरुद्ध गतिवाले (तान्) उन चोरों को (वि, नाशय) नाश कर डाल ॥५॥

भावार्थभाषाः - राजा अपनी सेना के बल से शत्रुसेना को जीते और जैसे दावानल वन को भस्म करता और प्रचण्ड वायु वृक्षादि को गिरा देता है, वैसे ही विघ्नकारी वैरियों को मिटाता रहे ॥५॥

(३) रुद्रास्त्र : यजुर्वेद में रुद्र के इस अस्त्र का वर्णन है और इससे रक्षा की प्रार्थना की गई है -

परि॑ नो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु॒ परि॑ त्वे॒षस्य॑ दुर्म॒तिर॑घा॒योः। अव॑ स्थि॒रा म॒घव॑द्भ्यस्तनुष्व॒ मीढ्व॑स्तो॒काय॒ तन॑याय मृड ॥ - यजु० १६.५०

पदार्थभाषाः -हे (मीढ्वः) सुख वर्षाने हारे राजपुरुष ! आप जो (रुद्रस्य हेतिः) दुष्टों को रुलाने वाले सभापति राजा का वज्र है, उससे (त्वेषस्य) क्रोधादिप्रज्वलित (अघायोः) अपने से दुष्टाचार करने हारे पुरुष के सम्बन्ध से (नः परि-वृणक्तु) हम लोगों को सब प्रकार पृथक् कीजिये। जो (दुर्मतिः) दुष्टबुद्धि है, उससे भी हम को बचाइये और जो (मघवद्भ्यः) प्रशंसित धनवालों से प्राप्त हुई (स्थिरा) स्थिर बुद्धि है, उसको (तोकाय) शीघ्र उत्पन्न हुए बालक के लिये (तनयाय) कुमार पुरुष के लिये (परि, तनुष्व) सब ओर से विस्तृत करिये और इस बुद्धि से सब को निरन्तर (अव, मृड) सुखी कीजिये ॥५० ॥

भावार्थभाषाः - राजपुरुषों का धर्मयुक्त पुरुषार्थ वही है कि जिससे प्रजा की रक्षा और दुष्टों को मारना हो, इससे श्रेष्ठ वैद्य लोग सब को आरोग्य और स्वतन्त्रता के सुख की उन्नति करें, जिससे सब सुखी हों ॥ ५० ॥

(४) ब्रह्मास्त्र : यह ब्रह्म का अस्त्र माना जाता है। इसकी प्रहारक शक्ति असाधारण होती है। इसकी कोई काट नहीं। अथर्ववेद में कहा गया है कि यह सबसे बड़ा प्रहारक है। यह अस्त्र घोर तपस्या का फल है -

चक्षुषो हेते मन॑सो हेते ब्रह्म॑णो हेते तप॑सश्च हेते। मे॒न्या मे॒निर॑स्य॑मे॒नय॒स्ते सन्तु ये॒स्माँ अ॑भ्यघा॒यन्ति॑ ॥ - अथर्ववेद ५.६.९

पदार्थभाषाः - हे (चक्षुषः हेते) चक्षु के वज्र/आयुध ! हे (मनसः हेते) मन के आयुध ! हे (ब्रह्मणः हेते) ब्रह्म वा विद्वान् के आयुध ! और (तपसः च हेते) तपः सामर्थ्य के आयुध ! तू (मेन्याः मेनिः असि) मेनि = वज्र का भी तू वज्र है अथवा आयुध का भी तू आयुध है। (ये अस्मान्) जो हम पर (अभिघायन्ति) सब तरफ़ से पापाचार करना चाहते हैं, (ते अमेनयः सन्तु) वे सदा बिना हथियार के रहें।

भावार्थभाषाः - शत्रु पर नेत्रदृष्टि रख कर उसको दबाना चक्षु का शस्त्र फेंकना है। मानस - मन्त्र वा विचार शक्ति के प्रयोग से शत्रु को पराजित करना मन का हथियार चलाना है, विद्वानों के विज्ञान द्वारा निर्मित महासंहारक अस्त्र का प्रयोग करना ब्रह्मास्त्र वा ब्रह्म का हथियार चलाना है। इसी प्रकार बल, तपस्या, सहनशक्ति से शत्रु पर वार करना, तप का हथियार चलाना है, अथवा तप और विद्या के प्रयोग से शस्त्रों का निर्माण और प्रयोग करके शत्रु को पराजित करना चाहिए।

(५) वारुणास्त्र वा वरुण के पाश : अथर्ववेद में इसका उल्लेख है। ये नागपाश अर्थात् साँप की तरह मनुष्य को लिपट कर बांध लेते हैं और पापी को जकड़ कर मार देते हैं -

ये ते॒ पाशा॑ वरुण स॒प्तस॑प्त त्रे॒धा तिष्ठ॑न्ति॒ विषि॑ता॒ रुष॑न्तः। छि॒नन्तु॒ सर्वे॒ अनृ॑तं॒ वद॑न्तं॒ यः स॑त्यवा॒द्यति॒ तं सृ॑जन्तु ॥ - अथर्ववेद ४.१६.६

पदार्थभाषाः - (वरुण) हे दुष्टनिवारक परमेश्वर वा राजन् ! (सप्तसप्त= सप्तसप्ताः) सात धाम [पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट् अर्थात् स्थूल जगत्, परमाणु और प्रकृति] से सम्बन्धवाले, (त्रेधा) तीन प्रकार से [भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान काल में] (विषिताः) फैले हुए (रुशन्तः) [दुष्टों वा दोषों को] नाश करते हुए (ये ते पाशाः तिष्ठन्ति) जो तेरे फाँस वा जाल स्थित हैं, (सर्वे) वे सब जाल (अनृतं वदन्तम्) मिथ्या बोलनेवाले को (छिनन्तु) छिन्न-भिन्न करें, और (यः सत्यवादी) जो सत्यवादी है, (तम्) उसको (अति सृजन्तु) सत्कार पूर्वक छोड़ें ॥६॥

भावार्थभाषाः - वह वरुण परमात्मा वा नियमों में रखने वाला राजा, दुष्टों को यथावत् दण्ड और शिष्टों को यथावत् आनन्द देता है ॥६॥

(६) सम्मोहनास्त्र : अथर्ववेद में उल्लेख है कि इस अस्त्र के प्रयोग से शत्रुसेना को मोहित वा मूर्छित कर दिया जाता है और उसके हाथ काट लिए जाते हैं अथवा उनको निःशस्त्र/निहत्था कर दिया जाता है -

अ॒ग्निर्नः॒ शत्रू॒न्प्रत्ये॑तु वि॒द्वान्प्र॑ति॒दह॑न्न॒भिश॑स्ति॒मरा॑तिम्। स सेनां मोहयतु॒ परे॑षां॒ निर्ह॑स्तांश्च कृणवज्जा॒तवे॑दाः ॥ - अथर्ववेद ३.१.१

पदार्थभाषाः - (अग्निः) अग्नि [के समान तेजस्वी] (विद्वान्) विद्वान् राजा (अभिशस्तिम्) मिथ्या अपवाद और (अरातिम् प्रतिदहन्) शत्रुता को सर्वथा भस्म करता हुआ (नः) हमारे (शत्रून् प्रति, एतु) शत्रुओं पर चढ़ाई करे। (सः जातवेदाः) वह प्रजाओं का जाननेवाला वा बहुत धनवाला राजा (परेषाम् सेनाम् मोहयतु) शत्रुओं की सेना को मोहित वा मूर्छित कर देवे, (च) और [उन वैरियों को] (निर्हस्तान् कृणवत्) निहत्था कर डाले ॥१॥

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य प्रजा में अपकीर्ति और अशान्ति फैलावे, विद्वान् अर्थात् नीतिनिपुण राजा ऐसे दुष्टों और उनके साथियों को यथावत् दण्ड देवे, जिससे वे लोग निर्बल होकर उपद्रव न मचा सकें ॥१॥

परि॒ वर्त्मा॑नि स॒र्वत॒ इन्द्रः॑ पू॒षा च॑ सस्रतुः। मुह्य॑न्त्व॒द्यामूः सेना॑ अमित्राणां परस्त॒राम् ॥ अथर्ववेद ६.६७.१

पदार्थभाषाः - (इन्द्रः च पूषा) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा और पोषण करनेवाला मन्त्री (वर्त्मानि सर्वतः परि-सस्रतुः) मार्गों पर सब दिशाओं में, सब ओर चलते रहे हैं। [उनके द्वारा सम्मोहनास्त्र के प्रयोग से] (अमित्राणाम् अमूः सेनाः) शत्रुओं की वे सब सेनायें (अद्य परस्तराम् मुह्यन्तु) आज बहुत दूर मोहित-व्याकुल होकर चली जावें ॥१॥

भावार्थभाषाः - युद्धकुशल राजा और मन्त्री के उपाय से शत्रु की सब सेनायें भाग जावें ॥१॥

(७) तामसास्त्र : चारों वेदों में इसका उल्लेख है। यह अस्त्र अश्रुगैस (Tear Gas) के तुल्य होता है। वह चारों ओर धुआँ फैला देता है। धुएँ से चारों ओर अंधेरा हो जाता है। शत्रुसेना के सैनिकों का दम घुटने लगता है और वे किंकर्तव्यविमूढ होकर इधर-उधर भागने लगते हैं। इसके लिए कहा गया है कि इससे शत्रुसेना के सैनिक एक दूसरे को पहचान नहीं पाते हैं। यह अंगों को शिथिल कर देता है -

अ॒सौ या सेना॑ मरुतः॒ परे॑षाम॒स्मानैत्य॒भ्योज॑सा॒ स्पर्ध॑माना। तां वि॑ध्यत॒ तम॒साप॑व्रतेन॒ यथै॑षाम॒न्यो अ॒न्यं न जा॒नात् ॥ - अथर्व० ३.२.६

पदार्थभाषाः - (मरुतः) हे शूर पुरुषों ! (परेषाम् असौ या सेना) वैरियों की वह जो सेना (अस्मान् अभि) हमको चारों ओर से (ओजसा) बल के साथ (स्पर्धमाना आ-एति) स्पर्धा करती हुई अथवा ललकारती हुई चढ़ी आती है, (ताम्) उसको (अपव्रतेन तमसा विध्यत) क्रियाहीन कर देनेवाले अन्धकार से छेद डालो, (यथा एषाम् अन्यः अन्यम्) जिससे इनका कोई किसी को परस्पर (न जानात्) न जाने वा पहचाने ॥६॥

यह मन्त्र यजुर्वेद में इस प्रकार है−

अ॒सौ या सेना॑ मरु॒तः परे॑षाम॒भ्यैति॑ न॒ ओज॑सा॒ स्पर्ध॑माना। तां गू॑हत तम॒साप॑व्रतेन॒ यथा॒मी ऽअ॒न्योऽअ॒न्यन्न जा॒नन् ॥ - यजु० १७.४७

पदार्थभाषाः - (मरुतः) हे शूरों ! (परेषाम् असौ या सेना) वैरियों की वह जो सेना (नः) हमको (अभि) चारों ओर से (ओजसा स्पर्धमाना) बल के साथ स्पर्धा करती हुई अथवा ललकारती हुई (आ, एति) चली आती है, (ताम्) उसको (अपव्रतेन तमसा गूहत) क्रियाहीन कर देनेवाले अन्धकार से ढक दो, (यथा अमी अन्यः अन्यम्) जिससे वे लोग एक दूसरे को (न जानन्) न जानें ॥४७॥

इस तामस अस्त्र का दूसरा नाम 'अप्वा' भी है -

अ॒मीषां॑ चि॒त्तं प्र॑तिलो॒भय॑न्ती गृहा॒णाङ्गा॑न्यप्वे॒ परे॑हि। अ॒भि प्रेहि॒ निर्द॑ह हृ॒त्सु शोकै॑र॒न्धेना॒मित्रा॒स्तम॑सा सचन्ताम् ॥ - ऋग्वेद १०.१०३.१२

पदार्थभाषाः - (अप्वे) हे अप्वा, स्वास्थ्य से गिरानेवाले रोग या शान्ति से गिरानेवाले भयरूप अस्त्र ! (त्वम्) तू (परा इहि) यहाँ से परे हो जा, पृथक् हो जा (अमीषाम्) इन शत्रुओं के (चित्तम्) चित्त को, मन-बुद्धि-अहङ्कार को (प्रतिलोभयन्ती) मूढ़ करते हुए (अङ्गानि गृहाण अभि प्र इहि) उनके अङ्गों को पकड़-जकड़ शिथिल कर उन्हें प्राप्त हो, (शोकैः हत्सु निर्दह) सन्तापों से उनके हृदयों को निर्दग्ध कर दे, सर्वथा दग्ध कर दे (अमित्राः) शत्रुजन [तुम्हारे द्वारा] (अन्धेन सचन्ताम्) घने अन्धकार से संसक्त हो जावें ॥१२॥

भावार्थभाषाः - संग्राम में शत्रुओं के प्रति ऐसा ओषधियों का अस्त्रप्रयोग धूमरूप या वायुरूप-गैस फेंकना चाहिये, जो मानसिक रोग या भय को उत्पन्न कर दे, उनके मन आदि को दूषित तथा अन्य अङ्गों को निष्क्रिय-शिथिल बना दे, हृदयों को जलादे और घने अन्धकार में हुए जैसे बना दे ॥१२॥

त्रिष॑न्धे॒ तम॑सा॒ त्वम॒मित्रा॒न्परि॑ वारय। पृ॑षदा॒ज्यप्र॑णुत्तानां॒ मामीषां मोचि॒ कश्च॒न ॥ अथर्ववेद ११.१०.१९

पदार्थभाषाः - (त्रिषन्धे) हे त्रिसन्धि ![तीनों कर्म, उपासना और ज्ञान में मेल रखनेवाले त्रयीकुशल राजन्] (त्वम्) तू (तमसा) अन्धकार से (अमित्रान् परि वारय) वैरियों को घेर ले। (पृषदाज्यप्रणुत्तानाम्) दही घृत [आदि खाद्य वस्तुओं] से हटाये गये (अमीषाम्) इन शत्रुओं में से (कश्चन मा मोचि) कोई भी न छूटे॥१९॥

भावार्थभाषाः - राजा शत्रुओं को आग्नेय आदि अस्त्र-शस्त्रों से अचेत और खान-पान आदि पदार्थों से शून्य करके हरा देवे ॥१९॥

तामसास्त्र के धुंए से शत्रुसेना पीड़ित हो जाए -

धू॑मा॒क्षी सं प॑ततु कृधुक॒र्णी च॑ क्रोशतु। त्रिष॑न्धेः॒ सेन॑या जि॒ते अ॑रु॒णाः स॑न्तु के॒तवः॑ ॥ - अथर्ववेद ११.१०.७

पदार्थभाषाः - (धूमाक्षी) धूमपीड़ित वा धुएँ भरी आँखोंवाली शत्रुसेना (सं पततु) पृथ्वी पर गिर जाये, (च कृधुकर्णी) और युद्ध-वाद्य की ध्वनि से मन्द कानोंवाली किंकर्तव्यविमूढ़ होकर (क्रोशतु) आक्रोश करें वा रोये और चिल्लायें। (त्रिषन्धेः सेनया जिते) त्रिसन्धि - 'जल, स्थल और वायुसेना' के सेनापति की सेना द्वारा जीतने पर (अरुणाः केतवः सन्तु) विजय की सूचक अरुण वा रक्त वर्ण वाली पताका होवें ॥७॥

भावार्थभाषाः - वीर सेनापति के आग्नेयास्त्र और धूमास्त्र के धुँए से वैरियों की आँखें धुँधला जायें और पटह/ढोल आदि युद्ध-वाद्य की ध्वनि से उनके कान बहरे हो जायें। वे पृथ्वी पर गिर पड़े, रोयें और चिल्लायें। इस प्रकार जीत होने पर अन्य दुष्टों को भयभीत करने के लिए सेनापति अपनी जय-पताका ऊँची करे ॥७॥

(८) ऐन्द्रास्त्र वा वज्र : यह अयस् अर्थात् उत्तम कोटि के लोहे या फौलाद का बना हुआ होता था। गीता १०.२८ में आयुधों में वज्र के सदृश महासंहारी होने के कारण श्रीकृष्ण ने आयुधानामहं वज्रम् द्वारा अपने आप को वज्र कहा है। यह इन्द्र वा सेनापति का प्रमुख अस्त्र है। चारों वेदों के अनेक मन्त्रों में वज्र की चर्चा है -

अ॒स्मा इदु॒ त्वष्टा॑ तक्ष॒द्वज्रं॒ स्वप॑स्तमं स्व॒र्यं रणा॑य। वृ॒त्रस्य॑ चिद्वि॒दद्येन॒ मर्म॑ तु॒जन्नीशा॑नस्तुज॒ता कि॑ये॒धाः ॥ - अथर्ववेद २०.३५.६

पदार्थभाषाः - (अस्मै) इस संसार के हित के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (त्वष्टा) सूक्ष्म करनेवाले [सूक्ष्मदर्शी विश्वकर्मा सभापति] ने (स्वपस्तमम्) अत्यन्त सुन्दर रीति से काम सिद्ध करनेवाला, (स्वर्यम्) सुख देनेवाला (वज्रम्) वज्र [कठोर शस्त्र] (रणाय तक्षत्) रण जीतने के लिये तीक्ष्ण किया है। (ईशानः) ऐश्वर्यवान् सभापति (तुजता येन) जिस काटने वा मारने वाले वज्र से (वृत्रस्य मर्म चित् तुजन्) वैरी के मर्म [जीवन स्थान] को ही हिंसित करते हुए (विदत्) उस वज्र को प्राप्त करके (कियेधाः) कितने ही श्रेष्ठ प्राणियों का धारण-पोषण करता है ॥६॥

भावार्थभाषाः - सभापति राजा तीक्ष्ण-तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को दण्ड देकर प्रजा को आनन्द देवें ॥६॥

अथर्ववेद में वर्णन है कि १०० गांठ वाला भी वज्र होता है -

ए॒वा त्वं दे॑व्यघ्न्ये ब्रह्म॒ज्यस्य॑ कृ॒ताग॑सो देवपी॒योर॑रा॒धसः॑ ॥ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा ती॒क्ष्णेन॑ क्षु॒रभृ॑ष्टिना ॥ प्र स्क॒न्धान्प्र शिरो॑ जहि ॥ - अथर्ववेद १२.५.६५-६७

पदार्थभाषाः - (देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली], (अघ्न्ये) हे अवध्य ! [न मारने योग्य गौ अथवा प्रबल वेदवाणी] (त्वम् एव) तू इसी प्रकार (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मज्ञ वा वेदज्ञ ब्राह्मण के हानिकारक, (कृतागसः) अपराध करनेवाले पापी, (देवपीयोः) देव वा विद्वानों के हिंसक, (अराधसः) आराधनाहीन वा अदानशील पुरुष के (स्कन्धान्) कन्धों और (शिरः) शिर को (शतपर्वणा) सौ वा सैकड़ों ग्रंथि-गांठ-जोड़ वाले, (तीक्ष्णेन क्षुरभृष्टिना वज्रेण प्र प्र जहि) तीक्ष्ण-तेज, छुरे की सी धारवाले वज्र से तोड़-तोड़ दे ॥६५-६७॥

भावार्थभाषाः - वेदानुयायी धर्मात्मा राजा वेदविरोधी दुष्टाचारियों को प्रचण्ड दण्ड देवे ॥६५-६७॥

इस वज्र से एक साथ सौ व्यक्तियों का वध किया जा सकता है -

मे॒निः श॒तव॑धा॒ हि सा ब्र॑ह्म॒ज्यस्य॒ क्षिति॒र्हि सा ॥ - अथर्ववेद १२.५.१६

पदार्थभाषाः - (सा) वह [वेदवाणी] (हि) निश्चय से (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मज्ञ वा वेदज्ञ ब्राह्मण के हानिकारक की (शतवधा मेनिः) शतघ्नी [सैकड़ों को मारनेवाली] वज्र है, (सा हि) वह ही [उसका] (क्षितिः) नाश रूप है ॥१६॥

भावार्थभाषाः - जो मनुष्य वेदप्रचारकों को हानि पहुँचाता है, वह संसार की हानि कर के आप भी अनेक विपत्तियों में पड़ता है ॥१६॥

न वेप॑सा॒ न त॑न्य॒तेन्द्रं॑ वृ॒त्रो वि बी॑भयत्। अ॒भ्ये॑नं॒ वज्र॑ आय॒सः स॒हस्र॑भृष्टिराय॒तार्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥ - ऋग्वेद १.८०.१२

पदार्थभाषाः - हे सभापते राजन् ! (स्वराज्यमन्वर्चन्) अपने राज्य का सत्कार करता हुआ तू, जैसे (वृत्रः वेपसा) मेघ वेग से (इन्द्रम् न विबीभयत्) सूर्य्य को भय प्राप्त नहीं करा सकता और वह मेघ गर्जन वा प्रकाश की हुई (तन्यता न) बिजुली से भी भय को नहीं दे सकता, (एनम्) इस मेघ के ऊपर सूर्यप्रेरित (सहस्रभृष्टिः) सहस्र प्रकार के दाह से युक्त (आयसः) लोहे के शस्त्र वा आग्नेयास्त्र के तुल्य (वज्रः) वज्ररूप किरण (अभ्यायत) चारों ओर से प्राप्त होता है, वैसे शत्रुओं पर आप होयें ॥ १२ ॥

भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। जैसे मेघ आदि सूर्य्य को नहीं जीत सकते, वैसे ही शत्रु भी धर्मात्मा सभा और सभापति का तिरस्कार नहीं कर सकते ॥ १२ ॥

(९) अथर्ववेद में विभिन्न प्रकार के बाण

अयो॑मुखाः सू॒चीमु॑खा॒ अथो॑ विकङ्क॒तीमु॑खाः। क्र॒व्यादो॒ वात॑रंहस॒ आ स॑जन्त्व॒मित्रा॒न्वज्रे॑ण॒ त्रिष॑न्धिना ॥ - अथर्ववेद ११.१०.३

पदार्थभाषाः - (अयोमुखाः) लोहे समान कठोर मुखवाले बाण, (सूचीमुखाः) सुई के तुल्य पैने मुखवाले बाण, (विकङ्कतीमुखाः) शमी वृक्षों के से कंटीले मुखवाले बाण, (क्रव्यादः) शत्रुओं के कच्चे मांसों को मानो खानेवाले बाण (अथो) और (वातरंहसः) वायु के समान वेगवाले बाण (वज्रेण त्रिषन्धिना) वज्ररूप त्रिसन्धि अर्थात् 'जल, स्थल, वायु' तीन सेना के अध्यक्ष से [प्रेरित हुए] (अमित्रान् आ सजन्तु) शत्रुओं को आ लगें ॥३॥

(१०) युद्ध में विजय के लिए विविध शस्त्रास्त्र

ये बा॒हवो॒ या इष॑वो॒ धन्व॑नां वी॒र्याणि च। अ॒सीन्प॑र॒शूनायु॑धं चित्ताकू॒तं च॒ यद्धृ॒दि। सर्वं॒ तद॑र्बुदे॒ त्वम॒मित्रे॑भ्यो दृ॒शे कु॑रूदा॒रांश्च॒ प्र द॑र्शय॥ - अथर्ववेद ११.९.१

पदार्थभाषाः - (ये बाहवः) जो भुजाएँ, (याः इषवः) जो बाण हैं (च धन्वनाम् वीर्याणि) और धनुषों वा धनुर्धारियों के वीर कर्म हैं, उनको तथा (असीन्) खड्ग/तलवारों, (परशून्) परशूओं-कुठारों-कुल्हाड़ों, (आयुधम्) युद्ध सम्बन्धी अस्त्र-शस्त्रों को, (च यत् हृदि चित्ताकूतम्) और जो हृदय में [विजय के] विचार और सङ्कल्प हैं, (तत् सर्वम्) उस सब को (अर्बुदे) हे अर्बुदि ! [शूर सेनापति राजन्] (त्वम्) तू (अमित्रेभ्यः दृशे कुरु) अमित्रों-शत्रुओं के लिये देखने हेतु संनद्ध कर, (च) और (उदारान् प्र दर्शय) [हमें अपने] बड़े उपायों को दिखा दे ॥१॥

भावार्थभाषाः - सेनापति राजा अपने योद्धाओं, अस्त्र-शस्त्रों, हृदय के विचारों और मनोरथों को दृढ़ करके शत्रुओं को भयभीत करने के लिए दिखाये और इन उपायों द्वारा उन्हें रोककर अपनी प्रजा की यथावत् रक्षा करे ॥१॥

ध्यातव्यम् - विभिन्न शास्त्रास्त्रों के वेद-प्रमाणों की जानकारी आचार्य कपिलदेव द्विवेदी द्वारा लिखित "वेदों में विज्ञान" पुस्तक से ली गई है और वेद मन्त्रों के अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी ब्रह्ममुनि, पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी आदि आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों से उद्धृत किए गए गये हैं। यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि वेद युद्ध द्वारा अनावश्यक और अनुचित हिंसा का समर्थन नहीं करता, परंतु श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए वह युद्ध का समर्थक अवश्य है।

- आचार्य विजय आर्य