वेदों में आकर्षण शक्ति की भी चर्चा है । लोग कहते हैं कि यह नूतन विज्ञान है और यूरोपवासी सर ऐसेक न्यूटन जी ने प्रथम इसको जाना, तबसे यह विद्या पृथिवी पर फैली है, परन्तु यह बात सही नहीं है। भारतवर्ष में इसकी चर्चा बहुत दिनों से विद्यमान है और चुम्बक - लोह को देख सर्वपदार्थगत आकर्षण का अनुमान किया गया था। अब वेदों की एक ऋचा यहाँ लिखते हैं, जिससे सब संशय दूर हो जाएँगे -
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥ - ऋग्वेद १/३५/२
कृष्ण = आकर्षणशक्ति युक्त । रज = लोक 'लोका रजांस्युच्यन्ते' - निरुक्त, पृथिवी आदि लोक का नाम रज है । हिरण्यय - अपनी ओर जो हरण करे, खींच लावे, वह हिरण्यय कहाता है । जिस कारण सूर्य का रथ अर्थात् सूर्य का समस्त शरीर अपने परितः वा चारों ओर के पदार्थों को अपनी ओर खींचता है, अतः यह रथ हिरण्यय कहाता है ।
अथ मन्त्रार्थ - (सविता) सूर्य (कृष्णेन रजसा वर्त्तमानः) आकर्षण शक्ति युक्त पृथिवी, बुध, बृहस्पति आदि लोकों के साथ वर्त्तता हुआ, (अमृतम् मृतम् च) अमृत, जो पृथिवी आदि लोक और मृत, जो पृथिवी आदि लोकों में रहने वाले शरीरधारी जीव, इन दोनों को (आनिवेशयन्) अपने-अपने कार्य में लगाते हुए (देवः) यह महान् देव (हिरण्ययेन रथेन) हिरण्मय = अपनी ओर हरण करने वाले अथवा स्वर्णमय/प्रकाशित रथ के द्वारा (भुवनानि पश्यन्) चारों ओर स्थित भुवनों को मानों देखता हुआ (आयाति) निरन्तर आवागमन कर रहा ॥२॥
इस ऋचा में कृष्ण शब्द दिखलाता है कि सर्वपदार्थगत आकर्षण शक्ति है। पृथिवी अपनी ओर तथा सूर्य अपनी ओर खींचते हुए विद्यमान हैं, अत: सूर्य के ऊपर पृथिवी गिरकर नष्ट नहीं होती। सूर्य का घनफल (Volume) पृथिवी से लगभग १३,००,००० वा १३ लक्ष/लाख गुणा है और इस सौर्य जगत का अधिपति भी वही है । इसलिये इसमें मध्याकर्षण शक्ति भी बहुत है, इसमें हेतु की आवश्यकता नहीं। अतएव वेद में सूर्य के नाम ही कृष्ण आया है, क्योंकि वह अपनी ओर पृथिवी आदि भुवनों को खींचे हुए यथास्थिति रखे हुए है।
आकाश में दिखाई पड़ने वाले सभी पिंड गतिशील हैं तथा उनमें आकर्षण शक्ति भी है। सूर्य स्वयं आकर्षण से युक्त है, वह अपने आकर्षण से ग्रहों को अपनी ओर खींचता है। सूर्य और सभी ग्रहों में गति है। यदि वे गति में न होते, तो सूर्य पर आ गिरते। सूर्य का गुरुत्व बल गतियुक्त ग्रहों को अपनी ओर खींचता रहता है, जिसके कारण से उनके पथ लगभग गोल आकृति के हो जाते हैं। इस प्रकार सूर्य का आकर्षण ग्रहों को अपनी अपनी कक्ष में स्थापित कर देता है।
मंत्र में 'सविता' शब्द का प्रयोग हुआ है। सविता का अर्थ सूर्य ही है। शतपथब्राह्मण ग्रंथ (३.२.३.१८, आदि) में कहा गया है, एष वै सविता य एष (सूर्यः) तपति, अर्थात् यही सविता है, जो यह (सूर्य) तपता है।
प्रस्तुत मंत्र कहता है कि सविता (सूर्य) स्वर्णिम रथ से आता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि सूर्य बहुत चमकीला और प्रकाश से पूर्ण है। पुनः मंत्र में उल्लेख है कि यह अन्य भुवनों (ग्रहों) को देखता हुआ आता है। सूर्य उन्हें अपने प्रकाश से प्रकाशित करके देखता है। यहां सूर्य द्वारा ग्रहों को प्रकाशित करने की बात परोक्षरूप से कही गई है।
☀वेद और विज्ञान में विचारों की समता☀
विज्ञान कहता है कि लगभग ४५७ करोड़ वर्षों से सूर्य निरंतर प्रकाश और ऊष्मा का वितरण करता आ रहा है। प्रकाश और ऊष्मा के द्वारा वह स्थावर (जड़) और जंगम (चेतन-गतिशील) सबको जीवन प्रदान कर रहा है। इस सिद्धांत को हज़ारों वर्ष पहले ऋग्वेद के उपरोक्त मन्त्र १.३५.२ में इस प्रकार समझाया है कि अदृश्य आकर्षण शक्ति से सदा वर्तमान रहने वाला, यह सूर्य, मर्त्य (जड़) और अमृत (चेतन) पर अपनी किरणों को निक्षेप करता हुआ और लोक-लोकांतरों को देखता हुआ गुजरता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य एक गतिशील नक्षत्र है, वह अपनी आकाश गंगा की धुरी के इर्द-गिर्द अपने सौरमंडल के साथ ३७० किलोमीटर प्रति सैंकड की गति से घूम रहा है। सूर्य ११ वर्ष में अपने अक्ष की धुरी पर एक चक्कर लगाता है और २५ करोड़ साल में अपनी आकाश-गंगा की एक परिक्रमा पूरी करता है। आकाश गंगा में अगणित नक्षत्र हैं और उन नक्षत्रों में अनगिनत सौर परिवार हैं, जिनके निकटवर्ती होकर सूर्य गुजरता रहता है। इस रहस्य को व्यक्त करते हुए ऋषि कहते हैं, सूर्य भुवनों (लोक-लोकांतरों) को देखता हुआ गुजरता है।
पंडित हरिशरण सिद्धांतालंकार ने अपने ऋग्वेद भाष्य में उपरोक्त मंत्र का अर्थ इस प्रकार किया है -
आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च । हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न् ॥ - ऋग्वेद १/३५/२
१. सूर्याभिमुख होकर प्रार्थना करनेवाला 'हिरण्यस्तूप' ऋषि प्रार्थना करता हुआ कहता है कि यह (आकृष्णेन रजसा वर्तमानः) अपनी ओर आकृष्ट किये हुए लोकसमूह के साथ वर्तमान (सविता) सबका प्रेरक सूर्य, हम सबको कर्मों में प्रेरित करता है और सब ऐश्वर्यों का उत्पादक होता है।
२. यह सविता देव (अमृतम्) न मरने देनेवाली प्राणशक्ति को (च मर्त्यम्) तथा मरणधन शरीर को (निवेशयन्) अपने-अपने स्थान में स्थापित करता हुआ, अर्थात् 'स्व-स्थ' स्वस्थ करता है। जितना अधिक हम सूर्य-किरणों में रहते हैं, उतना ही स्वस्थ बनते हैं।
३. यह (सविता देवः) कर्मों में प्रेरक प्राणशक्ति को देनेवाला सूर्य (हिरण्ययेन रथेन) अपने ज्योतिर्मय अथव हितरमणीय रथ से (भुवनानि पश्यन् याति) सब प्राणियों का ध्यान करता हुआ गति कर रहा है। सूर्य का यह रथ सबका हितकारी है। (प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः) यह सूर्य तो प्रजाओं का प्राण ही है। यह सबका हित करता हुआ अपने मार्ग पर चल रहा है।
भावार्थ - यह सूर्य ही सब लोकों का केन्द्र है। यह हमारे प्राणों व शरीर को स्वस्थ रखता है। सभी का पालन करता हुआ, अपने मार्ग का आक्रमण वा सम्यक् क्रमण कर रहा है।
महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने ऋग्वेद भाष्य में उपरोक्त मंत्र में श्लेष अलंकार से 'सविता' का अर्थ परमेश्वर और सूर्य लेकर दो अर्थ किये हैं -
पदार्थान्वयभाषाः - [परमेश्वर के पक्ष में] यह (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाला (देवः) सबसे अधिक प्रकाशयुक्त परमेश्वर (आकृष्णेन) अपनी आकर्षण शक्ति से (रजसा वर्त्तमानः) सब सूर्य्यादि लोकों के साथ व्यापक हुआ (अमृतम्) अंतर्यामिरूप वा वेद द्वारा मोक्षसाधक सत्य ज्ञान (च मर्त्यम् निवेशयन्) और कर्मों और प्रलय की व्यवस्था से मरणयुक्त जीव को अच्छे प्रकार स्थापन करता हुआ (हिरण्ययेन रथेन) यशोमय ज्ञानस्वरूप रथ से युक्त (भुवनानि पश्यन् आयाति) लोकों को देखता हुआ अच्छे प्रकार सब पदार्थों को प्राप्त होता हैं।
[सूर्य के पक्ष में] यह (देवः सविता) प्रकाशयुक्त सूर्य, वृष्टि और रसों का उत्पन्न करनेवाला (कृष्णेन रजसा) प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोकों के साथ [लोका रजांस्युच्यन्ते। - निरुक्त ४।१९] (आवर्त्तमानः) अपनी आकर्षण शक्ति से वर्त्तमान इस जगत् में (अमृतम्) वृष्टि द्वारा अमृत स्वरूप रस (च मर्त्यम् निवेशयन्) तथा काल व्यवस्था से मरण को अपने-२ सामर्थ्य में स्थापन करता हुआ, (हिरण्ययेन रथेन) प्रकाशस्वरूप गमन शक्ति से [रथो रंहतेर्गतिकर्मणः। - निरुक्त ९।११] (भुवनानि पश्यन् आयाति) लोकों को देखता हुआ, अच्छे प्रकार वर्षा आदि रूपों को अलग-२ प्राप्ति करता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मंत्र में श्लेषालंकार है। जैसे सब पृथिवी आदि लोक, मनुष्यादि प्राणियों, वा सूर्यलोक अपने आकर्षण में पृथिवी आदि लोकों, वा ईश्वर अपनी सत्ता से सूर्यादि सब लोकों का धारण करता है, ऐसे क्रम से सब लोकों का धारण होता है, इसके विना अन्तरिक्ष में किसी अत्यन्त भारयुक्त लोक का, अपनी परिधि में स्थिति होने का संभव नहीं होता और लोकों के घूमे विना, क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर, दिन, रात, पक्ष, मास, ऋतु, और संवत्सर आदि कालों के अवयव नहीं उत्पन्न हो सकते हैं ॥२॥
☀आकर्षण विद्या के अन्य प्राचीन प्रमाण☀
सिद्धान्त शिरोमणि नाम के ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है, वह यह है -
आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरु स्वाभिमुखीकरोति । आकृष्यते तत्पततीव भाति समे समन्तात् कुरियं प्रतीतिः॥
- सर्वपदार्थ-गत एक आकर्षण शक्ति विद्यमान है, जिस शक्ति से यह पृथिवी आकाशस्थ पदार्थ को अपनी ओर करती है और जो यह खींच रही है, वह गिरता मालूम होता है अर्थात् पृथिवी अपनी ओर खींच कर आकाश में फेंकी हुई वस्तु को ले आती है, इसको लोक में गिरना कहते हैं। इससे विस्पष्ट है कि भास्कराचार्य्य से बहुत पूर्व यह विद्या देश में विद्यमान थी। आर्य्यभट्टीय नामक ज्योतिष शास्त्र में भी इसका वर्णन आया है।
☀सूर्य और पृथिवी घूमते हैं (Rotate):☀
यजुर्वेद का कथन है कि पृथिवी, सूर्य और उषा सदा चक्कर काटते हैं, घूमते हैं।
समाववर्ति पृथिवी समुषाः समु सूर्यः। समु विश्वमिदं जगत्। - यजु० २०/२३
- पृथिवी सूर्य का चक्कर काटती है, तो सूर्य अपनी धुरी पर घूमता है। इसी प्रकार यह सारा संसार गतिशील है और घूमता है।
स सूर्यः... ववृत्याद् रथ्येव चक्रा। - ऋग्वेद १०.८९.२
- यहांँ ऋग्वेद का कथन है कि सूर्य रथ के पहिये की तरह निरन्तर घूमता है।
☀आकर्षण-शक्ति (Magnetism)☀
वेदों में सूर्य की आकर्षण शक्ति का अनेक मंत्रों में उल्लेख है ।
सूर्य द्युलोक का धारक : सूर्य के आकर्षण के कारण ही द्युलोक रुका हुआ है।
(क) सूर्येण उत्तभिता द्यौः। - ऋग्वेद १०.८५.१
- यहाँ ऋग्वेद में वर्णन है कि सूर्य ने अवलंबन-रहित स्थान में घुलोक को अपने आकर्षण (Magnetic Power) से रोका हुआ है।
(ख) अस्कम्भने सविता द्याम् अदृहत्। - ऋग्वेद १०.१४९.१
- आकाश में कहीं कोई अवलंबन नहीं है। द्युलोक के सभी नक्षत्र आदि सूर्य की आकर्षण शक्ति से रुके हुए हैं।
☀सूर्य पृथिवी को रोके हुए है:☀
सविता यन्त्रैः पृथिवीम् - अरम्णात्। - ऋग्वेद १०.१४९.१
- यहाँ ऋग्वेद में वर्णन है कि सूर्य ने अपनी आकर्षण शक्ति से पृथिवी को रोका हुआ है। अतएव पृथिवी गिरने नहीं पाती। मंत्र में आकर्षण शक्ति के लिए 'यन्त्र' शब्द है। यन्त्र शब्द का अर्थ है, नियंत्रण करने वाली शक्ति ।
व्यस्कम्ना रोदसी विष्णवेते, दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः। - यजु० ५.१६
- यहाँ यजुर्वेद में इसी बात को और स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि सूर्य ने अपनी किरणों से, अर्थात् अपनी किरणों की आकर्षण शक्ति से, पृथिवी को चारों ओर से रोका हुआ है। इतना ही नहीं, अपितु पूरे द्यावापृथिवी को उसने अपनी आकर्षण शक्ति से रोका हुआ है।
चकृषे भूमिम्। - ऋग्वेद १.५२.१२
- इस ऋग्वेद के मन्त्र में भी उल्लेख है कि सूर्य अपनी आकर्षण शक्ति से भूमि को रोके हुए है।
☀आकर्षण शक्ति से नक्षत्र आदि रुके हैं:☀
ऋग्वेद के एक मंत्र में स्पष्ट संकेत है कि सभी नक्षत्रों आदि में अपनी-अपनी आकर्षण शक्ति है।
स्वर्णरम् अन्तरिक्षाणि रोचना, द्यावाभूमी पृथिवीं स्कम्भुरोजसा । - ऋग्वेद १०.६५.४
- अतएव यहाँ कहा गया है कि देवों ने द्युलोक, पृथिवी, अन्तरिक्ष और नक्षत्रों आदि को आकर्षण शक्ति से रोका हुआ है। मंत्र में आकर्षण शक्ति के लिए ओजस् (तेज, Magnetic Power) शब्द दिया गया है।
☀परमाणुओं में आकर्षण शक्ति है:☀
प्रत्येक परमाणु में आकर्षण शक्ति है, अतः प्रत्येक परमाणु दूसरे परमाणु को अपनी ओर आकृष्ट करता है। ऋग्वेद में इस बात को स्पष्ट किया गया है कि परमाणुओं में आकर्षण शक्ति है, अतः प्रत्येक परमाणु दूसरे परमाणु को सदा आकृष्ट करता है।
एको अन्यत् - चकृषे विश्वम् आनुषक्। - ऋग्वेद १.५२.१४
शब्दार्थ : (एकः) - प्रत्येक परमाणु, (अन्यत् विश्वम्) अन्य सभी परमाणुओं को, (आनुषक्) - निरन्तर, (चकृषे) अपनी ओर खींचता है ।
संकलनकर्ता - आचार्य विजय आर्य
सन्दर्भ ग्रन्थ-
१. वैदिक विज्ञान - पंडित शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ
२. ऋग्वेद भाष्यम् - पंडित हरिशरण सिद्धांतालंकार
३. ऋग्वेद भाष्य - महर्षि दयानंद सरस्वती
४. वेदों में विज्ञान - डॉक्टर कपिलदेव द्विवेदी
५. वेद सविता पत्रिका लेख - वेद और विज्ञान में सूर्य - देवकृष्ण दाश
६. वेद सविता पत्रिका लेख - आकाशीय पिंडों की गतिशीलता - मृदुला अग्रवाल
अधिक जानकारी के लिए पढ़ें - ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, धारणाकर्षण-विषयः - महर्षि दयानंद सरस्वती
- आचार्य विजय आर्य (संकलनकर्ता)
