अद्वैत मीमांसा
क्या ब्रह्मज्ञान वा ईश्वर-प्राप्ति अथवा मुक्ति के बाद जीव ब्रह्म हो जाता है?
प्रश्न - मुण्डक में कहा है -
१. यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद, ब्रह्मैव भवति । - मु० ३।२।९
अर्थात् "जो उस परब्रह्म को जान लेता है, वह मानो ब्रह्म ही हो जाता है।"
इसी प्रकार बृहद्० में बताया है -
२. ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति । - बृहद् ० ४।४।६
अर्थात् "ब्रह्म होकर, ब्रह्म को प्राप्त होता है।”
उत्तर -
उपनिषदों में यह प्रायः औपचारिक वर्णन हैं। 'एव' पद के प्रयोग से स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ उत्प्रेक्षालंकार है। फिर, ब्रह्म क्या है ? 'रसो वं सः' (तै० २।७), 'आनन्दो ब्रह्मेति' (तै० ३।६)। रस वा आनन्द का अपर नाम ब्रह्म है। इस प्रकार 'ब्रह्मैव भवति' का तात्पर्य है - ब्रह्मस्थ अथवा आनन्दमय होना। तैत्तिरीय उपनिषद के अनुसार -
रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति । - तै० २।७
- ब्रह्म को पाकर जीवात्मा भी आनन्द-मय हो जाता है। जिस प्रकार नदी के समुद्र में मिलने पर वह समुद्र के लावण्य से आप्लावित हो जाती है, उसी प्रकार आनन्दस्वरूप ब्रह्म से मिलकर जीवात्मा आनन्द से आप्लावित हो जाता है। मुक्ति से तात्पर्य ईश्वररूप होना वा ईश्वर बन जाना नहीं, वरन् ईश्वर के सान्निध्य से आनन्द प्राप्त करना है। ब्रह्म के साथ जीव के अविभाग से रहने का यही अभिप्राय है कि ब्रह्म आनन्दस्वरूप है और जीव उसका भागीदार है, अर्थात् ब्रह्म के साथ रहता हुआ जीव आनन्द का उपभोग करता है, किन्तु अपने अस्तित्व को नहीं गँवाता।
प्रेम और भक्ति की पराकाष्ठा तब होती है, जब प्रेमी अपने प्रेष्ठ के प्रेम में इतना मग्न हो जाता है कि अपनी सुधबुध खोकर कहने लगता - 'जिधर देखता हूँ, उधर तू ही तू है।'
योग की आठवीं सीढ़ी पर पहुँचने पर उपासक को सर्वत्र ध्येय ही दीखने लगता है। उसी अवस्था का वर्णन करते हुए ऋग्वेद में लिखा है कि -
१. यदग्ने स्याहं त्वं, त्वं वा घा स्या अहम् । स्युष्टे सत्या इहाशिषः॥ - ऋ० ८/४४/२३
- हे ईश्वर ! "यदि मैं तू हो जाऊँ और तू मैं हो जाए, तो तेरा आशीर्वाद संसार में सत्य हो जाए।"
यह औपचारिक रूप से कही हुई 'यत्र नान्यत् पश्यति' (छा० ७।२४।१), 'न तु तद् द्वितीयमस्ति तदोऽन्यद् विभवतं यत् पश्येत्' (बृ० ४।३।३३) इत्यादि उक्तियों का यही तात्पर्य है। ये आनन्दानुभूति के अतिरेक में अतिशयता से कहे गये वचनमात्र हैं।
रामानुज के मत में -
ब्रह्मणोः भावः, न तु स्वरूपैक्यम् । - रामानुज-श्रीभाष्य १।१।१
- अर्थात् मुक्तात्मा ईश्वर के भाव वा आनन्द को प्राप्त करता है, किन्तु उसके साथ तद्रूपता को प्राप्त नहीं होता।
प्रश्न - जब ब्रह्म आनन्दस्वरूप है और उसे पाकर जीव भी आनन्दमय हो जाता है, तो दोनों एक न सही, एक-जैसे वा सदृश तो हो ही जाते हैं। देखिए प्रमाण -
तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय, निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति। - मु० ३।१।३
- मुण्डक के आधार पर कहा जाता है कि ज्ञानी पुरुष पाप-पुण्य से छूट निर्लेप होकर अत्यन्त साम्य वा समता को प्राप्त होता है।
उत्तर - इस भ्रान्ति का निवारण करते हैं -
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः । - योग० १।२४
- ईश्वर का लक्षण है - क्लेश, कर्म, कर्म-विपाक और आशयों से असंपृक्त-अछूता, विशेष चेतनतत्त्व ईश्वर है।
दूसरी ओर इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख और ज्ञान आत्मा के लक्षण हैं। -
इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति । - न्याय० १।१।१०
ईश्वर और जीव के अपने-अपने गुण हैं। गुणों का गुणी से समवाय-सम्बन्ध होता है, अर्थात गुण और गुणी एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते। ईश्वर के गुण ईश्वर में और जीव के जीव में सदा बने रहेंगे। अतः ईश्वर, जीव के सदृश और जीव ईश्वर के सदृश कभी नहीं हो सकते।
अतः मुक्त होकर भी जीव अल्पज्ञ और परिमित गुणकर्मस्वभाववाला ही रहेगा। वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् तथा सर्वव्यापक कभी नहीं हो सकता। गुणों में न्यूनाधिक्य होने पर भी वस्तु का स्वभाव या स्वरूप कभी नहीं बदलता। दूसरे, 'साम्यमुपैति' में 'उपैति' क्रियापद का सामञ्जस्य तभी होगा, जब पहले दोनों में भेद माना जाएगा, क्योंकि साम्य सदा भेदघटित रहता है।
ब्रह्म तो स्वभाव से आनन्दस्वरूप है, जबकि जीवात्मा निमित्त से आनन्दमय होता है। जैसी स्थिति अग्नि के सम्पर्क से प्रकाश-उष्णता-युक्त एवं रक्तवर्ण बने लोहे की होती है, वैसी ही ब्रह्म के सम्पर्क से आनन्दयुक्त जीव की है। कुछ काल के लिए लोहा रक्तवर्ण अवश्य हो जाता है, किन्तु यह उसका स्वभाव नहीं बन जाता। इसी प्रकार जीव के कुछ काल तक आनन्दयुक्त हो जाने पर भी वह सदा आनन्दस्वरूप नहीं हो जाता। जो निमित्त से आनन्दमय है, वह नित्य आनन्दस्वरूप के समान कैसे हो सकता है? और कुछ नहीं, तो कालभेद तो रहेगा ही। 'ब्रह्म-विद् ब्रह्मैव भवति' अथवा 'यो वै तत्परमं ब्रह्म वेद, स ब्रह्मैव भवति' को लेकर यदि कोई आग्रह करे कि ब्रह्म को जाननेवाला सचमुच ब्रह्म हो जाता है, तो भी यहाँ 'भवति' (हो जाता है) क्रियापद से स्पष्ट है कि ब्रह्मवित् पहले ब्रह्म नहीं था, अब हुआ है। एक 'है', दूसरा 'होता है'। 'है' से नित्य का बोध होता है, 'होता है' से अनित्य का। नित्य और अनित्य में सादृश्य कैसे सम्भव है? उत्पन्न होनेवाला भाव अनित्य एवं पराधीन होता है। निमित्त से बननेवाला सादि, सादि होने से अनिवार्यतः सान्त तथा सादि-सान्त होने से अनित्य होगा। परन्तु असली ब्रह्म तो अनादि, नित्य तथा स्वभाव से आनन्दस्वरूप रहेगा और इस अन्तर के कारण, दोनों में ऐकात्म्य अथवा सादृश्य कभी न होगा। वस्तुतः आत्मा परमात्मा के स्तर तक उठने की योग्यता नहीं रखता।
जीवात्मा कभी भी अपने जीव स्वरूप का परित्याग नहीं करता। वह जो कुछ करता है, 'स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते' - छां० ८।३।४ अर्थात् अपने स्वरूप में स्थिर रहकर करता है।
रामानुज का स्पष्ट मत है कि "सृष्टि की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय तथा सर्वेश्वरत्वादि गुण जीवात्मा को मुक्तावस्था में भी प्राप्त नहीं हो सकते।" -
एते च जगत्पतित्व-जगद्विधरण-सर्वेश्वरत्व आदयः प्रत्यगात्मनि मुक्तावस्थायामपि न कथञ्चिद् भवन्ति । - रामानुज भाष्य - ब्रह्मसूत्र, ४।४।१३-१५, १७
जीवात्मायें आकार में अणु-परिमाण हैं, जबकि सर्वश्रेष्ठ आत्मा विभु वा सर्वव्यापी है। जीवात्मा प्रभु के रचे जगत् का अनुभव कर सकता है, किन्तु जगत् की सृजनात्मक गतिविधियों के ऊपर उसका कोई वश नहीं है, क्योंकि वह केवल ब्रह्म की ही विशेष शक्ति है। असीम ऐश्वर्य की प्राप्ति जीवात्मा को कभी नहीं होती। जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय तथा प्राणियों के कर्मफल की व्यवस्था आदि कार्य तो केवल परब्रह्म के सामर्थ्य में रहते हैं।
क्या मोक्ष में जीवात्मा का ब्रह्म में विलय हो जाता है?
प्रश्न - वर्षाकाल में आकाश से जो बूंदें गिरती हैं, वे समुद्र से आती हैं और नदी-नालों के रूप में बहकर अन्ततः समुद्र में जा मिलती हैं। इसी प्रकार जीवात्माओं का ब्रह्म से प्रादुर्भाव होता है और अन्ततः उसी में उनका विलय हो जाता है। मुण्डकोपनिषद् में उपलब्ध समुद्र और नदी का दृष्टान्त इसी का निरूपण करता है। वहाँ लिखा है -
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्र ऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥
- मुण्डकोपनिषद ३।२।८
- "जिस प्रकार नदियाँ बहती-बहती अपने नामरूप को छोड़कर समुद्र में जा मिलती हैं, उसी प्रकार विद्वान् पुरुष नामरूप का परित्याग करके परमात्मा को प्राप्त कर तद्रूप हो जाता है।
उत्तर - उपर्युक्त सन्दर्भ में समुद्र से आनेवाली बूंदों के धरती पर बरसने और नदी-नालों के रूप में बहकर पुनः अपने उद्गम-समुद्र में जा मिलने से समझा जाता है कि परमात्मा से उद्भुत जीवात्मा के कालान्तर में ब्रह्म को प्राप्त कर लेने पर, उसी में उसका विलय हो जाता है और इस प्रकार उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यथार्थ में ऐसा नहीं है। वस्तुतः इस दृष्टान्त से जीवात्मा और परमात्मा का अभेद वा एकरूपता सिद्ध नहीं होती। कठोपनिषद् में कहा है -
यथोदकं शुद्धे शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति । एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम ॥ - कठ० ४।१५
- "जैसे शुद्ध जल में शुद्ध जल मिल जाता है, वैसे ही मुक्त आत्मा ब्रह्म में मिल जाता है।"
उपनिषद् के इस वचन से जीव-ब्रह्म का भेद स्पष्ट होता है, अभेद नहीं। यदि अभेद होता, तो मिलने का प्रश्न ही न उठता। संयोग सदा दो का होता है। एक में संयोग-सम्बन्ध की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि कहा जाए कि पहले एक के दो हो गये थे, पुनः दोनों का मेल हो गया, तो एक से दो में विभक्त होनेवाले पदार्थ का सावयव एवं परिणामी होना सिद्ध है, किन्तु ब्रह्म निरवयव तथा अपरिणामी है, अतएव उसके वियुक्त और तदनन्तर संयुक्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि भेद को दर्शाती हैं। 'तादृगेव भवति' (वैसा ही हो जाता है, परंतु वही नहीं होता।) ये शब्द ही द्वैतसिद्धि में प्रमाण हैं। यह प्रत्यक्ष है कि जल में जल मिलकर बढ़ता है, नष्ट नहीं होता ।
सामान्यतः समुद्र जल का भण्डार होता है। असंख्य बिन्दुओं से मिलकर समुद्र बनता है। इन बिन्दुओं से पृथक् समुद्र का अस्तित्व नहीं। यदि किसी कारण ये बिन्दु सूख जाएँ, तो समुद्र का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। यदि समुद्र की भाँति ब्रह्म को भी असंख्य जीवों का संघात माना जाएगा, तो ब्रह्म का वेदोक्त अखण्ड और निरवयव स्वरूप ही नष्ट हो जाएगा, वह सावयवी और खण्ड वाला सिद्ध होगा। ऐसा टुकड़ों वाला ब्रह्म किसी को स्वीकार्य नहीं होगा।
समुद्र में जाकर नदी का प्रणाली-रूप में बहना तथा गङ्गा-यमुना आदि नाम नहीं रहता, पर वह जल जो गङ्गा-यमुना आदि नामरूप से वहाँ पहुँचा है, नष्ट नहीं हो जाता, यद्यपि समुद्र के लावण्य से वह ओतप्रोत हो जाता है। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष सांसारिक देहादिरूप तथा देवदत्त आदि नाम से छूटकर परब्रह्म को प्राप्त होता है। परन्तु ब्रह्मानन्द से आप्लावित होकर भी जीवात्मा अपने स्वरूप अथवा अस्तित्व को नहीं खो बैठता। मुण्डकोपनिषद् (३।२।८) के पूर्वोद्धत सन्दर्भ 'यथा नद्यः स्यन्दमानाः' इत्यादि का यही तात्पर्य है।
मोक्ष में जीवात्मा की स्वतन्त्र सत्ता
"ब्रह्मज्ञानी जीवात्मा उस परम ज्योति को प्राप्त करके अपने स्वरूप में बना रहता है और उसका साथी बना रहता है।" इसी आशय को छान्दोग्य और तैत्तिरीय उपनिषद् में इस प्रकार प्रकट किया है -
१. परं ज्योतिरूप-संपद्य स्वेन रूपेण अभिनिष्पद्यते। - छां० ८।३।४
- स्थूल शरीर और इन्द्रियों का अभाव हो जाने पर भी शुद्ध संकल्पमय शरीर के साथ जीवात्मा उस परम ज्योति को प्राप्त होकर अपने स्वरूप में बना रहता है।
२. सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान्, ब्रह्मणा सह विपश्चितेति । - तैत्तिरीय उपनिषद् २।१
- गुहा वा हृदयाकाश में स्थित अविनाशी, चेतनस्वरूप तथा सर्वव्यापक ब्रह्म को जो जान लेता है, वह सर्वज्ञ ब्रह्म का साथी हो जाता है और साथी रहते हुए सब प्रकार से तृप्त रहता है।
इस विषय में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक साक्षी स्वयं आचार्य शंकर की है। वेदान्तसूत्र (४।४।१७) के भाष्य में वे लिखते हैं-
३. जगदुत्पत्त्यादि-व्यापारं वर्जयित्वा अन्यद् अणिमादि आत्मकमैश्वर्य मुक्तानां भवितुमर्हति । तेनासिन्निहितास्ते जगद्व्यापारे...एतेषाम् अनैकमत्ये, कस्यचित् स्थित्यभिप्रायः कस्यचित्संहाराभिप्राय, इत्येवं विरोधोऽपि कदाचित् स्यात् । - शां० भा० वेदांत ४।४।१७
- "जगत् की उत्पत्ति आदि व्यापार को छोड़कर अन्य अणिमादि ऐश्वर्य मुक्तात्माओं को प्राप्त हो सकता है। जगत् के उत्पादन और आदि में मुक्तात्माओं का सहयोग-सान्निध्य सर्वथा अनपेक्षित है। यह भी सम्भव है कि उनके अनेक होने से रचना आदि के विषय में विरोध खड़ा हो जाए।"
यह भी नहीं कहा जा सकत्ता कि ब्रह्म पहले ब्रह्म ही था और कालान्तर में अविद्याग्रस्त होने पर जीव हो गया और पीछे शास्त्र द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त कर पुनरपि ब्रह्म हो गया, क्योंकि ऐसा मानने से 'यः सर्वज्ञः सर्ववित्' (मु० १।१।६), 'परास्य शक्तिवविधंव श्रूयते, स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च' (श्वेत० ६।८), इत्यादि शास्त्रवचनों का विरोध होता है, जो कहते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ है और उसमें स्वाभाविक ज्ञान विद्यमान है। अतः सर्वज्ञ ईश्वर कभी भी अविद्याग्रस्त नहीं हो सकता।
इसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु के दो रूप होते हैं - एक उसका बाह्यरूप - उसका आकार, प्रकार, रंगरूप आदि और दूसरा उसकी आन्तरिक सत्ता, जिसे वस्तुतत्त्व कहते हैं। नामरूप शरीर के होते हैं, जीवों के नहीं। रूप जन्म के साथ आता है और नाम पुकारने की सुविधा के लिए लोगों द्वारा दिया जाता है।
स्वशरीरगतबालत्वयुवत्वस्थविरत्वादयो धर्माः जीवं न स्पृशन्ति । - ब्रह्मसूत्र, रा० भा० १।१।१३
- 'समय के साथ रूप बदलता रहता है, कभी-कभी इतना बदल जाता है कि पहचान में नहीं आता। कभी-कभी नाम भी बदल जाता है, किन्तु सब-कुछ बदल जाने पर भी अपनी दृष्टि में और दूसरों की दृष्टि में भी मैं ७० वर्ष बाद भी वही हूँ, जो जन्म के समय था। जो ७० वर्ष तक ज्यों-का-त्यों बना रहता है, वस्तुतः मैं वही हूँ।'
संसार से विदा होते समय मैं अपने नामरूप का परित्याग कर देता हूँ, किन्तु मेरी सत्ता तब भी बनी रहती है। नदियों के समुद्र में मिलने के सम्बन्ध में जो कहा है, उसका तात्पर्य यही है कि समुद्र में मिलते समय नदियाँ अपने पहले नाम और विशेष रूप को छोड़ देती हैं, पर नदी के रूप में समुद्र में मिलने पर भी उनका वस्तुतत्त्व-जल नष्ट नहीं होता - उसकी एक भी बूंद स्वरूप से अपने अस्तित्व का परित्याग नहीं करती। यही कारण है कि नदी का जल समुद्र में मिलकर उसके जल की मात्रा को बढ़ा देता है। जल नष्ट हो गया होता, तो ऐसा कभी न होता। जलरूप में समुद्र और नदी के जल समान हैं। इतना अवश्य है कि समुद्रजल के लावण्य से नदीजल आप्लावित हो जाता है। यह ईश्वरीय व्यवस्था है कि वह जल वाष्परूप में फिर उठता, पृथिवी पर गिरता और नदीरूप में बहकर फिर वहीं पहुँच जाता है। यह क्रम अनादि-अनन्त है, अंशतः कुछ ऐसी ही स्थिति आत्मा और परमात्मा की है ।
बद्ध अवस्था में जीवात्मा शरीरधारी होता है। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा आदि की अपेक्षा से शरीर होता है और शरीरों की पहचान के लिए नाम रक्खे जाते हैं। जब जीव मुक्त हो जाता है, तो शरीर नहीं रहता और शरीर के न रहने पर उसकी पहचान के लिए रक्खा गया नाम भी नहीं रहता, मात्र जीव रह जाता है। तब, जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में मिलने के पश्चात् अपना गंगा-यमुना का नाम और रूप खो बैठती हैं, उसी प्रकार मुक्त जीव अपने बाह्यरूप - शरीर और देवदत्त, यज्ञदत्त आदि नामों को छोड़कर ईश्वर को प्राप्त होता है, परन्तु अपने नामरूप को खोकर भी मुक्तजीव का वस्तुतत्त्व--आत्मतत्त्व, नष्ट नहीं होता। हाँ, जैसे समुद्रजल के लावण्य से नदी-जल आप्लावित हो जाता है, वैसे ही ब्रह्म को साक्षात् करनेवाला आत्मा मुक्तावस्था में ब्रह्मानन्द से आप्लावित रहता है। जीवात्मा के परमात्मा में विलीन होने का यही तात्पर्य है। इसी को अभेद की स्थिति कहा जा सकता है। आत्मा अपने अस्तित्व को खो बैठता है, ऐसा कभी सम्भव नहीं।
हाँ! केवल इतना और कह देना उचित होगा, जो जीव अब तक ब्रह्म नहीं थे और अब ब्रह्म के गुणों को प्राप्त करके ब्रह्म हुए हैं, उन जीवों और ब्रह्म के गुणों में समवाय (नित्य) सम्बन्ध नहीं, अपितु संयोग (अनित्य) सम्बन्ध हुआ है, इसलिए वे अनादि ब्रह्म नहीं, अपितु सादि ब्रह्म होते हैं और सादि होने से सान्त भी। परन्तु असली ब्रह्म अनादि और अनन्त है। इसलिए जीवों के ब्रह्म होने का अभिप्राय केवल इतना है कि उन्होंने ब्रह्म के आनन्द आदि कुछेक गुणों को प्राप्त कर अपने को ब्रह्म बनाया है, वे सर्वांश में सादि ब्रह्म भी नहीं होते। उनके भीतर कर्मफल दातृत्व, सृष्टिकर्तृत्व आदि गुण, तो न आते हैं और न आ सकते हैं। इसलिए सादि ब्रह्म के अर्थ उन्नत अथवा मुक्त जीव ही हो सकते है, इससे अधिक कुछ नहीं। इसलिए जीव का ब्रह्म होना असम्भव है।
सब से पहली बात तो यह है कि जिन ऋषियों और मनुष्यों के ब्रह्म हो सकने का उल्लेख, बृहदारण्यक उपनिषद् के वाक्यों में किया गया है, उनके लिए स्पष्ट रूप से लिखा है कि -
(वै अग्रे इदं ब्रह्म) निश्चय पहले यह ब्रह्म था, (तद् आत्मानम् एव अवेद्) उसने अपने ही को जाना कि (अहम् ब्रह्म अस्मि इति) 'मैं' ब्रह्म हूँ। (तस्माद् तत् सर्वम् अभवद्) उससे यह सब हुआ। (तद् यः यः देवानां प्रत्यबुध्यत) सो जो-जो देवो में से जाग उठे, (सः एव तद् अभवद्) वही वह (ब्रह्म) हो गये। (तथा ऋषीणां तथा मनुष्याणां) यों ऋषि और मनुष्यों में से [जो जाग उठे, वे ब्रह्म हो गये] - बृहदारण्यक, अध्याय १, ब्राह्मण ४, कण्डिका १०
- अर्थात् जाग उठने (ज्ञान और कर्मयोग की पूर्णता प्राप्त करने) के बाद ब्रह्म हुए, पहले नहीं थे, इस प्रकार ये सब सादि ब्रह्म हुए और सादि होने से सान्त भी ! परन्तु असली ब्रह्म अनादि और अनन्त है, इसलिए इन नवीन हुए ब्रह्मों और असली ब्रह्म से भेद का होना स्पष्ट है।
मोक्ष प्राप्त जीव सत् चित् से 'तं यथा यथोपास्ते तथैव भवति' के नियमानुसार, सच्चिदानन्द हो जाते हैं। अपनी प्रकृति से ये केवल सच्चित् होते हैं, परन्तु उत्कृष्ट प्रेम और निदिध्यासन के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लेने से, ईश्वर का आनन्द गुण, जो ईश्वर में तो उसके स्वरूप समवाय (नित्य) सम्बन्ध के रूप में रहा करता है, परन्तु इस सच्चित् उपासक में वह संयोग (अनित्य) सम्बन्ध के रूप में आ जाया करता है, अर्थात् यह मुक्त जीव सादि और सान्त सच्चिदानन्द हो जाता है। मुक्त जीव में आनन्द तो एक सीमा के अन्दर होता हुआ, आ भी जाया करता है, परन्तु ईश्वर के ईश्वरत्व प्रदर्शन करने वाले सृष्टिकर्तृत्व आदि गुण तो संयोग (अनित्य) सम्बन्ध के रूप में भी नहीं आया करते। यही नवीन ब्रह्मत्व की सीमा है, जो सदैव याद रखनी चाहिए।
जो जीव के ब्रह्म से आनन्द प्राप्त करने और जीव ईश्वर में अभेद न होने अथवा भेद होने की जो बात कही गई है, कुछेक प्रमाण उसकी पुष्टि में यहाँ दिये जाते हैं-
रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति ॥ - तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्द वल्ली, सातवां अनुवाक
- अर्थात् ईश्वर निश्चय से रस = आनन्दपूर्ण है, उस रसपूर्ण ईश्वर को पाकर यह जीव आनन्दी हो जाता है।
द्वैताद्वैत पर विचार करते हुए याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को कहा था कि जब उपासक द्वैत की भावना वाला होता है और जब तक उसके भीतर से अहङ्कार की भावना दूर नहीं हो जाती, तब तक एक दूसरे को देखता, सुनता, सूंघता और चखता आदि है, परन्तु जब उपासक निरहङ्कार हो जाता है, जिस अवस्था के लिए याज्ञवल्क्य ने कहा है, 'यत्र वा अस्य सर्वमात्मैवाभूत्' अर्थात् जब निश्चय इस (ब्रह्मवित्) का सब कुछ आत्मा (परमात्मा) ही हो गया और वह ब्रह्म में लीन होकर अपनी सुध-बुध भूल चुका है, तब किस से किस को देखे, सुने, सूंघे और चखे इत्यादि। भाव इसका यह है कि प्रेम और भक्ति की अधिकता में उपासक अपने को भूलकर सब जगह अपने प्रियतम को ही देखने लगता है, तब उसके सिवा उसकी दृष्टि में और कोई बाकी ही नहीं रहता और सब जगह उसे उसका प्रियतम ही दिखाई देने लगता है। अस्तु ये और इस प्रकार के सारे प्रकरण प्रेम और भक्ति के प्राचुर्य को प्रकट करने वाले हुआ करते हैं, इनका जीव और ब्रह्म की एकता से कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता।
मोक्ष का लक्षण (अर्थ) जीवात्मा के स्वरूप का नाश नहीं है।
क्या जीवात्मा मुक्ति में ब्रह्म में मिलकर नष्ट हो जाता है।
उत्तर - जीवात्मा अमर है, वह कभी नहीं मरता अथवा नष्ट होता है। इसके प्रमाण -
जीवात्मा की अमरता
जीवापेतं वाव किलेदं म्रियते, न जीवो म्रियते । - छां० ६।११।३
- जीव से रहित होने अर्थात् जीवात्मा के शरीर से निकल जाने पर यह देह मरा हुआ कहा जाता है, आत्मा कभी नहीं मरता।
न हन्यते हन्यमाने शरीरे। - कठ० १।२।१८; गीता० २।२
इस प्रकार 'नाभावो विद्यते सतः' अर्थात् सत् वा भाव का कभी भी अभाव नहीं होता है। इस न्याय के अनुसार भावरूप जीव का विनाश सम्भव नहीं। फिर, यदि मोक्ष का अर्थ मर जाना है, तो इसके लिए जन्म-जन्मान्तर तक प्रयत्न करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? यदि मोक्षावस्था में दुःखों के साथ-साथ आत्मा का भी नाश हो जाना है, तो उसे पाने का क्या लाभ ? यह तो 'न मर्ज रहा न मरीज़' वाली बात हुई। मोक्ष पानेवाला ही न रहा, तो मोक्ष-लाभ किसे हुआ? ऐसे मोक्ष को दुःखों का नाश वा निवृत्ति न कहकर, जीव का उच्छेद अथवा आत्महत्या की चेष्टा कहना अधिक उपयुक्त होगा ।
ऋषि लोग मुक्ति को भावरूप मानते हैं। ब्रह्मसूत्र (४-१५-५) के भाष्य में वात्स्यायन मुनि मोक्ष के सम्बन्ध में कहते हैं -
"अभयमजरममृत्युपदं ब्रह्म क्षेमप्राप्तिरिति" अर्थात् यह अभय देनेवाली, जीर्णता से रहित, जिसमें मृत्यु का ठिकाना नहीं, वह ब्रह्म सर्वतो महान् तथा कल्याण की प्राप्ति है। 'क्षेमप्राप्ति' शब्द स्पष्टतः अभाव का विरोधी है। मोक्ष में शरीर न रहने से वह 'अमृत्युपद' है। निश्चय ही वह भावरूप है। दुःखों से छूटकर आनन्दस्वरूप परमात्मा की गोद में बैठकर आनन्द का उपभोग करना मोक्ष है।
अनेकजन्मसं सिद्धस्ततो याति परां गतिम् । - गीता ६।४५
- अनेक जन्मों के निरन्तर पुरुषार्थ के फल-स्वरूप मोक्ष की उपलब्धि होती है।' तब उसकी उपलब्धि होने पर यदि उपलब्धा ही न रहे, तो यह बैठे-ठाले की खिलवाड़ नहीं तो क्या है ? परिश्रम का क्या फल मिला ? अपना सर्वनाश ! मुक्तात्मा की ब्रह्म के साथ समता, केवल मुक्त दशा में आत्मा द्वारा ब्रह्मानन्द की अनुभूति के आधार पर की गई है। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा है-
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म योऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति। - तै० २।१
- "जो सत्य, चेतन व अनन्त ब्रह्म को जान लेता है, वह 'ब्रह्म के साथ रहता हुआ' और सब प्रकार के आनन्द को भोगता हुआ आप्तकाम हो जाता है।' प्रस्तुत सन्दर्भ में आये 'सह ब्रह्मणा' (ब्रह्म के साथ) शब्दों से मोक्षावस्था में मोक्षलाभ करनेवाले जीव की सत्ता का बने रहना स्पष्ट है।
रामानुज-ब्रह्मसूत्रभाष्य १।१।१ में रामानुज के मत में मोक्ष आत्मा का तिरोभाव नहीं है, किन्तु बाधक मर्यादाओं को भंग करके स्वतन्त्र होना ही मोक्ष है, क्योंकि आत्मा का तिरोभाव उसका विनाश है। वस्तुतः जीवात्मा का अस्तित्व प्रत्येक अवस्था में बना रहता है।
इस लेख से इतनी बातें विस्पष्ट हैं -
१. जीवात्मा का अस्तित्व तथा ब्रह्म से उसका भेद अविद्याकृत नहीं है। यदि ऐसा होता, तो अविद्या का नाश हो जाने के कारण, मुक्त हो जाने पर, उसका अस्तित्व मिट जाना चाहिए था। परन्तु शंकर उसकी सत्ता का मोक्षदशा में भी बना रहना, स्पष्ट स्वीकार करते हैं।
२. जीवात्मा अन्तःकरण में पड़नेवाला ब्रह्म का प्रतिबिम्ब भी नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो मोक्षलाभ होने पर अन्तःकरण के न रहने पर भी जीवात्मा का अस्तित्व न बना रहता ।
३. समुद्र में नदियों की भाँति (सरित्सागरवत्) मोक्षावस्था में ब्रह्म में आत्मा का लय नहीं होता। यदि ऐसा होता, तो उस अवस्था में उनको 'अनेक' कैसे कहा जा सकता था ?
४. जीवों को ब्रह्म का अंश अथवा अग्नि की चिंगारियों के सदृश भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि किसी भी वस्तु के अंशों अथवा अग्नि की चिंगारियों में परस्पर भेद या विरोध नहीं होता, जबकि शंकर मोक्षावस्था में जीवात्माओं में 'अनैकमत्य' तथा 'विरोध' का होना मानते हैं।
५. शंकर के मत में मुक्त पुरुष सब प्रकार का सामर्थ्य प्राप्त कर लेने पर भी सृष्टि की उत्पत्त्यादि का कार्य नहीं कर सकता। यदि जीव ब्रह्म में विलीन होकर ब्रह्मरूप हो जाता, तो उसे सृष्टिनिर्माण आदि कार्य में असमर्थ क्यों बताया जाता? जो पहले भी ब्रह्म था और यदि उपाधि के कारण कुछ कसर भी थी, तो उपाधि से छूटकर मोक्षावस्था में, ब्रह्म में विलीन हो जाने से पूरी हो गई, तब उसमें किसी प्रकार की अयोग्यता क्यों रह जाए? स्पष्ट है कि किसी भी अवस्था में जीव न ब्रह्म बन सकता है, न ब्रह्म-जैसा।
६. अपने यथार्थस्वरूप का ज्ञान हो जाने पर भी (अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जानेवाले राजकुमार की तरह) जीवात्मा न केवल 'ब्रह्म न भवति' अपितु 'साम्यमपि नोपैति'। अर्थात् तब भी ब्रह्म को प्राप्त अनेक अधिकारों से वंचित रहता है। ब्रह्मलोक में रहते हुए भी उसे द्वितीय श्रेणी के नागरिक का जीवन विताना पड़ता है। वह विशेषाधिकारसंपन्न ब्रह्म की बराबरी का दावा नहीं कर सकता ।
७. जगत् के उत्पत्त्यादि कार्य में मुक्तात्माओं का सहयोग ही नहीं, उनका सान्निध्य भी परमेश्वर को पसन्द नहीं, क्योंकि उनके मतभेदों के कारण, उसे अपने उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय ग्रादि कार्य में बाधा पड़ने की आशंका है।
८. परमेश्वर के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति तथा मतभेद बने रहने से उनका व्यवहार लोकवत् प्रतीत होता है, जो मुक्त-दशा में भी उनके अविद्या से मुक्त होने में सन्देह उत्पन्न करता है।
अनादि काल में जब कोई आत्मा मुक्त हुआ है, उससे पहले संसार बराबर चालू रहा है। इसलिए जगत् की उत्पत्ति आदि में मुक्तात्मा को निमित्त या प्रयोजक नहीं माना जा सकता। वस्तुतः मुक्तात्मा कभी परब्रह्म के कार्य का अधिकारी या स्थानापन्न नहीं हो सकता । जीवात्मा को मुक्तावस्था में प्राप्त ऐश्वर्य-सम्बन्धी शास्त्रवचनों का तात्पर्य उसके अधिकार की सीमा में अवस्थित ऐश्वर्य को प्रकट करना है। वह अब बिना किसी बाधा के अपने सामर्थ्य से सब भावनाओं की अनुभूति में पूर्ण क्षमता रखता है। पर, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह परब्रह्म के सदृश हो गया है।
ध्यातव्यम् - इस लेख का अधिकांश भाग स्वामी विद्यानंद सरस्वती कृत तत्त्वमसि पुस्तक और कुछ भाग महात्मा नारायण स्वामी कृत एकादशोपनिषद पुस्तक से लिया गया है।
लेख सम्पादनकर्ता - आचार्य विजय आर्य
॥ओ३म्॥
