वेदों के अनुसार ब्रह्म/ब्रह्मा, विष्णु, महेश-शिव यह तीनों एक ही ईश्वर के गुणवाची नाम हैं। इन्हीं नाम से कुछ ऋषि-मुनि और देवता (महापुरुष) लोग भी हुए, परन्तु वे परमात्मा नहीं थे। कई बार मनुष्य ईश्वर के गुणवाचक नाम पर ही अपना नाम रख लेते हैं, जैसे शिवकुमार, ब्रह्मदत्त, विष्णुदत्त, महेश इत्यादि, परन्तु इससे वह ईश्वर नहीं हो जाते। ऐसे ही अष्टादश पुराण वर्णित ईश्वर नामवाची ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी इन्हीं पुराणों के अनुसार भिन्न देव थे, अतः उन्हें वेदवर्णित एक परमात्मा नहीं माना जा सकता। (पुराणों में कहीं-कहीं इनको एक भी कहा है, परंतु इनके वैर-विरोध और पृथक्ता को भी दर्शाया गया है, जिसका वर्णन इस लेख के अन्त में संक्षेप से दिया है।) इसके अतिरिक्त वेद के सृष्टि के आदि में प्रकट होने से उसमें आगे होने वाले मनुष्य और देवों का अनित्य रूप इतिहास संभव नहीं है। इतिहास किसी मनुष्य के होने के बाद ही लिखा जाता है, उससे पूर्व नहीं।
वेदमन्त्रों में अग्नि, जल, वायु, पृथिवी, आकाश, सूर्य-आदित्य, चन्द्र, प्राण, अन्न इत्यादि भी ईश्वर के नाम है, जो कि भौतिक पदार्थों के भी नाम हैं। इन वेदमन्त्रों में प्रकरण अनुसार देखना पड़ता है कि मन्त्र में जड़ पदार्थ का उल्लेख है अथवा इसी नाम से चेतन परमात्मा का। अग्नि, सूर्य/आदित्य/रवि, वायु और अङ्गिरा-अङ्गिरस नाम से चार ऋषि भी हुए, जिन्हें ईश्वर के द्वारा सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया गया था।
इसी प्रकार वेद में ईश्वर के अनेक अन्य नाम भी दिए हैं, परन्तु वह सभी एक ही ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव अनुसार विभिन्न नाम हैं, जैसे - प्रजापति, गणपति, हिरण्यगर्भ, इन्द्र, मित्र, वरुण, विराट्, सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, रुद्र, शङ्कर, देव/महादेव, सविता, वसु, पुरुष, नारायण, यम, यज्ञ, विश्व, विश्वेश्वर, मनु, उरुक्रम आदि। देवी, श्री, शक्ति, लक्ष्मी और सरस्वती - यह स्त्रीलिंग नाम भी जगन्माता ईश्वर के हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के प्रथम समुल्लास में ऐसे ही ईश्वर के १०० नामों का उल्लेख किया है, और इनकी संस्कृत व्याकरण से व्युत्पत्ति और अर्थ भी बताया है।
ईश्वर को एक कहने वाले वेद मन्त्र -
द्यावाभूमी जनयन् देव एकः। - ऋग्वेद १०.८१.३
- एक दिव्यगुणयुक्त प्रभु द्यौ लोक और पृथिवी को उत्पन्न करता है।
यः प्राणतो निमिषतो महित्वा एक इद् राजा जगतो बभूव। - यजुर्वेद २५/११
- जो प्राणवाले और अप्राणीरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा हुआ।
हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिः एक आसीत्। - यजुर्वेद १३/४
- जो हिरण्यगर्भ अर्थात् स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश हारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किए हैं, जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतनस्वरूप था, जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था।
सम्राट् एको विराजति। - यजुर्वेद १२/११७
- जगत् में एक ही सम्राट् विराजमान है।
तत्र को मोहः कः शोकऽ एकत्वम् अनुपश्यतः। - यजुर्वेद ४०/७
- जिसने ईश्वर के एकत्व स्वरूप को जान लिया है, उसे क्या मोह, क्या शोक?
दिव्यो गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिः एक एव नमस्यो विक्ष्वीड्यः। - अथर्ववेद २/२/१
- जो तुम दिव्य-अद्भुतस्वरूप, गन्धर्व वा वेदवाणी का धारण करनेवाले, सब ब्रह्माण्ड के एक ही स्वामी, सब प्रजाओं में नमस्कार योग्य और स्तुति योग्य हो।
न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते। य एतं देवम् एकवृतं वेद॥ न पञ्चमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते। य एतं देवमेकवृतं वेद॥ नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते। य एतं देवमेकवृतं वेद॥ - अथर्ववेद १३/४/१६-१८
- जो इस प्रकाशमय देव प्रभु को एकवृत-एकत्व वा एकस्वरूप से वर्तमान जानता है, और जानता है कि वह प्रभु न दूसरा, न तीसरा और न चौथा भी कहा जाता है। न पाँचवाँ, न छठा, न सातवाँ भी कहा जाता है। न आठवाँ, न नौवा, और न ही दसवाँ कहा जाता है।
ऋषिर्हि पूर्वजा असि एक ईशान ओजसा। इन्द्र चोष्कूयसे वसु॥ - ऋग्वेद ८.६.४१
- हे इन्द्र परमात्मन् ! तुम सबसे पूर्व होने वाले और ऋषि - सूक्ष्मद्रष्टा हो, अपने ओज-पराक्रम से केवल एक - अद्वितीय शासक हो रहे हो, सबको वसु वा धनादि ऐश्वर्य दे रहे हो।
परि यद् एषाम् एको विश्वेषां भुवद् देवो देवानां महित्वा। - ऋग्वेद १.६८.१
- जो एक देव ही इन सब देवों के महत्व को चारों ओर से व्याप्त करके वर्तमान है।
यो देवेष्वधि देव एक आसीत्। - ऋग्वेद १०.१२१.८
- जो देवों में अधिदेव एक था और है।
अनेजद् एकं मनसो जवीयः। - यजुर्वेद ४०.४
- वह एक अचल परमात्मा मन से भी वेगवान् है।
य एक इत् तमु ष्टुहि, कृष्टीनां विचर्षणिः। पतिर्जज्ञे वृषक्रतुः॥ - ऋग्वेद ६.४५.१६
- जो एक ही बलवान् कर्म करनेवाला प्रभु, मनुष्यों का विशेष द्रष्टा और पति-स्वामी है, उसी की स्तुति कर।
एक ईश्वर हेतु उपनिषद का प्रमाण
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः, सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥ - श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.११
- एक ही देव है, जो सब प्राणियों में छिपा हुआ है, वह सर्वव्यापी और सब प्राणियों के अन्तर में विद्यमान (परम) आत्मा है। वही कर्माध्यक्ष अर्थात् जीवों के कर्मफलों का प्रदाता, सब प्राणियों और पृथिव्यादि में बसा हुआ, साक्षी वा सबके शुभाशुभ कर्मों का द्रष्टा, चेता-ज्ञानस्वरूप, केवल-अद्वितीय और निर्गुण अर्थात् भौतिक पदार्थों के समान रूप-रसादि गुणों का आधार नहीं है, किन्तु सच्चिदानन्द स्वरूप है।
ईश्वर के अनेक नामों को कहने वाले वेदमन्त्र -
अथर्ववेद के निम्न मन्त्र में बताया गया कि एक ही ईश्वर को विद्वान् लोग इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि आदि अनेक वैदिक नामों से बोलते हैं -
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गुरुत्मान्। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥ - अथर्ववेद ९/१०/२८॥
- विप्रा वा विद्वान् लोग एक सत्यस्वरूप परमात्मा को ही बहुत प्रकार के नामों से बोलते हैं। उसे परमैश्वर्यशाली होने से ‘इन्द्र’, स्नेहमय होने से ‘मित्र’, श्रेष्ठ होने से ‘वरुण’, अग्रणी होने से ‘अग्नि’ कहते हैं। और निश्चय से वह ज्योतिर्मय होने से ‘दिव्य’, पालन आदि उत्तम कर्मकर्ता होने से ‘सुपर्ण’ है। उसे महान् होने से ’गरुत्मान्’, सर्वनियन्ता होने से ‘यम’ और अन्तरिक्ष में सर्वत्र व्याप्त होने से ‘मातरिश्वान्’ कहते हैं।
सोऽर्यमा स वरुणः स रुद्रः स महादेवः। रश्मिभिर्नभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः॥ सो अग्निः स उ सूर्यः स उ एव महायमः। रश्मिभिर्नभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः॥ - अथर्ववेद १३/४/४-५ ॥
- वह प्रभु ही ‘अर्यमा’ - सर्वनियन्ता है, वह ‘वरुण’ - वरणीय है। वह ‘रुद्र’ - ज्ञानोपदेश करनेवाला है। वह ‘महादेव’ - महान् देव है। वह प्रभु ‘अग्नि’ वा ज्ञानस्वरूप है, और वह ‘सूर्य’ - प्रकाशमान्, प्रेरक है, और वह ही ‘महायम’ - सर्वमहान् नियन्ता है। इस प्रकार प्रभु का स्मरण करनेवाला पुरुष अपने हृदयाकाश को ज्ञान रश्मियों से परिपोषित करता है और इसे ज्ञान से आवृत प्रभु प्राप्त होते हैं।
तदेवाग्निस् तदादित्यस् तद् वायुस् तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः॥ - यजुर्वेद ३२/१
- वह प्रभु ही ज्ञानस्वरूप और स्वयं प्रकाशित होने से ‘अग्नि’, नाशरहित और अखण्ड होने से ‘आदित्य’, अनन्त बलवान् और धारणकर्ता होने से ‘वायु’ और आनन्दस्वरूप और आनन्दकारक होने से ‘चन्द्रमा’ नाम वाला है। वह प्रभु ही शीघ्रकारी वा शुद्धस्वरूप होने से ‘शुक्र’, महान् होने से ‘ब्रह्म’, सर्वत्र व्यापक होने से ‘आप’ और सब प्रजा का स्वामी होने से ‘प्रजापति’ नाम वाला है।
त्वमग्न इन्द्रो वृषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः। त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरंध्या॥ - ऋग्वेद २.१.३
- हे (अग्ने) तेजस्वी ईश्वर! (त्वम् इन्द्रः) तुम ऐश्वर्यशाली ‘इन्द्र’ हो और (सतां वृषभः असि) सज्जनों के सुखवृष्टि करनेवाले ‘वृषभ’ हो। (त्वं उरुगायः नमस्यः विष्णुः) तुम अत्यन्त स्तुत्य नमस्कार करने योग्य, ‘विष्णु’ - व्यापक देव हो। (त्वं रयिविद् ब्रह्मा) तुम धनवान् ‘ब्रह्मा’ - जगत् को रचकर बढ़ाने वाले प्रभु हो। हे (‘ब्रह्मणस्पते’) ज्ञानपते! (त्वम् विधर्तः) तुम ‘विधाता’ सब जगत् के विशिष्ट धारणकर्ता हो और तुम (पुरंध्या सचसे) बुद्धि के साथ रहते हो अर्थात् ज्ञानी हो।
एक ईश्वर हेतु मनुस्मृति का प्रमाण
एतम् एके वदन्त्यग्निं, मनुम् अन्ये प्रजापतिम्। इन्द्रम् एके, परे प्राणम्, अपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥ - मनुस्मृति १२/१२३
- इस परम पुरुष परमात्मा को कुछेक जन स्वप्रकाश होने से ‘अग्नि’ बोलते हैं, अन्यजन विज्ञानस्वरूप होने से ‘मनु’ और सब का पालन करने से ‘प्रजापति’ कहते हैं और कुछेक जन परमैश्वर्यवान् होने से ‘इन्द्र’, अन्यजन सबका जीवनमूल होने से ‘प्राण’, दूसरे सनातन होने से ‘शाश्वत’ और सर्वमहान् होने से ‘ब्रह्म’ बोलते हैं।
वेदमन्त्र आदि के इतने प्रमाण होने पर भी बहुत से लोग दुर्भाग्यवश ईश्वर को अनेक मानते हैं, वस्तुतः ईश्वर के अनेक गुण-कर्म-स्वभाव वा स्वरूप और उसके अनुसार उसके अनेक नाम हैं, परन्तु वह सर्वथा एक ही है।
परमात्मा का मुख्य नाम ओ३म्
पहले बताए गये परमात्मा के सभी नाम गौण हैं, और उसका मुख्य नाम ओम् है, जिसके लिये निम्न प्रमाण हैं -
सर्वे वेदा यत् पदम् आमनन्ति, तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ - कठोपनिषत् २/१५
- चारों वेद जिस पद को वर्णन करते हैं, सारे तप जिसे बोलते हैं वा जिसकी प्राप्ति के लिये सब तप किये जाते हैं, जिसको इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य को आचरण करते हैं, उस पद को मैं तेरे लिए संक्षेप से कहता हूंँ - यह सर्वोत्कृष्ट पद ओम् नामक परमात्मा है।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति, विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति, तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥ सर्वद्वाराणि संयम्य, मनो हृदि निरुध्य च। मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणम्, आस्थितो योगधारणाम्॥ ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन् देहं, स याति परमां गतिम्॥ - भगवद्गीता ८/११-१३
- वेद के जानने वाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्दस्वरूप परमपद को अविनाशी कहते हैं, आसक्ति-रहित यत्नशील जन जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परमपद को चाहने हुये ब्रह्मचर्य को आचरण करते हैं, उस परमपद को मैं तेरे लिए संक्षेप से बोलूंँगा। सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, अपने प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म-संबंधी योगधारणा को स्थित हुआ, जो योगी ओम् नामक एक अक्षर-अविनाशी ब्रह्म को विशेष प्रीति करता हुआ और अनुस्मरण करता हुआ देह त्यागते हुये प्रयाण करता है, वह परमा गति को पाता है।
ओं खम्ब्रह्म। - यजुः ४०.१७
- अवतीत्योम्, आकाशमिव व्यापकत्वात् खम्, सर्वेभ्यो बृहत्वाद् ब्रह्म रक्षा करने से 'ओम्', आकाशवत् व्यापक होने से 'खम्', सब से बड़ा होने से ईश्वर का नाम 'ब्रह्म' है॥1॥
स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।
तस्य वाचकः प्रणवः।
तज्जपस्तदर्थ भावनम्।
- योगदर्शन १।२६,२७,२८
- परमेश्वर काल से प्रभावित न होने से पूर्व हुये ऋषि-मुनि-ज्ञानियों का भी गुरु अर्थात् परम गुरु है। उसका वाचक अथवा बताने वाला नाम प्रणव वा ओम् है। इस ओम् शब्द को [रक्षा करने वाले परमेश्वर] अर्थ के अनुसार जप करना चाहिये।
सत्यार्थ प्रकाश, प्रथम समुल्लास में वेदोक्त ईश्वर के कुछ नामों के अर्थ -
(विष्लृ व्याप्तौ) इस धातु से ‘नु’ प्रत्यय होकर ‘विष्णु’ शब्द सिद्ध हुआ है। वेवेष्टि व्याप्नोति चराऽचरं जगत् स विष्णुः चर और अचररूप जगत् में व्यापक होने से परमात्मा का नाम विष्णु है।
(बृह बृहि वृद्धौ) इन धातुओं से ब्रह्म शब्द सिद्ध हुआ है। जो सब के ऊपर विराजमान, सब से बड़ा, अनन्तबलयुक्त परमात्मा है।
(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से ‘णिच्’ प्रत्यय होने से ‘रुद्र’ शब्द सिद्ध होता है। यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम रुद्र है।
(बृह बृहि वृद्धौ) इन धातुओं से ‘ब्रह्मा’ शब्द सिद्ध होता है। योऽखिलं जगन्निर्माणेन बर्हति वर्द्धयति स ब्रह्मा जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ब्रह्मा है।
(गण संख्याने) इस धातु से ‘गण’ शब्द सिद्ध होता है, इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपति शब्द’ सिद्ध होते हैं। ये प्रकृत्यादयो जडा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात (गणना-संख्या में आने वाले) पदार्थों का स्वामी वा पालन करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम गणेश वा गणपति है।
(शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। बहुलमेतन्निदर्शनम् इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण का करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम शिव है।
(इदि परमैश्वर्ये) इस धातु से ‘रन्’ प्रत्यय करने से ‘इन्द्र’ शब्द सिद्ध होता है। य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वरः जो अखिल ऐश्वर्ययुक्त है, इस से उस परमात्मा का नाम इन्द्र है।
(मन ज्ञाने) इस धातु से ‘मनु’ शब्द बनता है। यो मन्यते स मनुः जो मनु अर्थात् विज्ञानशील और मानने योग्य है, इसलिये उस ईश्वर का नाम मनु है।
‘बृहत्’ शब्दपूर्वक (पा रक्षणे) इस धातु से ‘डति’ प्रत्यय, बृहत् के तकार का लोप और सुडागम होने से ‘बृहस्पति’ शब्द सिद्ध होता है। यो बृहतामाकाशादीनां पतिः स्वामी पालयिता स बृहस्पतिः जो बड़ों से भी बड़ा और बड़े आकाशादि ब्रह्माण्डों का स्वामी है, इस से उस परमेश्वर का नाम बृहस्पति है।
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥ —मनु॰ अ॰ १, श्लोक १०
- जल और जीवों का नाम नारा है। वे अयन अर्थात् निवासस्थान हैं जिसका, इसलिए सब जीवों में व्यापक परमात्मा का नाम नारायण है।
(पॄ पालनपूरणयोः) इस धातु से ‘पुरुष’ शब्द सिद्ध हुआ है, यः स्वव्याप्त्या चराऽचरं जगत् पृणाति पूरयति वा स पुरुषः जो सब जगत् में पूर्ण हो रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम पुरुष है।
सर्वाः शक्तयो विद्यन्ते यस्मिन् स सर्वशक्तिमानीश्वरः जो अपने कार्य करने में किसी अन्य की सहायता की इच्छा नहीं करता, अपने ही सामर्थ्य से अपने सब काम पूरा करता है, इसलिए उस परमात्मा का नाम सर्वशक्तिमान् है।
ईश्वर के स्त्रीलिङ्ग नाम -
(शकॢ शक्तौ) इस धातु से ‘शक्ति’ शब्द बनता है। यः सर्वं जगत् कर्तुं शक्नोति स शक्तिः जो सब जगत् के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम शक्ति है।
(श्रिञ् सेवायाम्) इस धातु से ‘श्री’ शब्द सिद्ध होता है। यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च स श्रीरीश्वरः। जिस का सेवन सब जगत्, विद्वान् और योगीजन करते हैं, उस परमात्मा का नाम श्री है।
(लक्ष दर्शनाङ्कनयोः) इस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है। यो लक्षयति पश्यत्यङ्कते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता, जैसे शरीर के नेत्र, नासिकादि और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र, सूर्यादि चिह्न बनाता तथा सब को देखता, सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादिशास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम लक्ष्मी है।
(सृ गतौ) इस धातु से ‘सरस्’ उस से मतुप् और ङीप् प्रत्यय होने से ‘सरस्वती’ शब्द सिद्ध होता है। सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चितौ सा सरस्वती जिस को विविध विज्ञान अर्थात् शब्द अर्थ, सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत् होवे, इससे उस परमेश्वर का नाम सरस्वती है।
अष्टादश पुराणवर्णित त्रिदेव एक वा भिन्न?
यदि अष्टादश पुराणवर्णित ब्रह्मा, विष्णु, शिवादि एक ही देव होते, तो उनके नाम से अलग-अलग पुराण बनाने की और भिन्न-भिन्न इतिहास लिखने की आवश्यकता भी न होती। यह देव कभी एक ही समय में शारीरिक रूप से पृथ्वी के कैलाश, वैकुण्ठ आदि भिन्न स्थानों पर ही भिन्न पत्नी और अपने-अपने परिवार सहित निवास करते थे और राक्षस आदि का नाश करते थे और परस्पर द्वेषपूर्वक युद्धरत भी हुये, परंतु अब ये उन स्थानों पर क्रिया और उपस्थिति से विद्यमान नहीं हैं, जबकि वेदोक्त एक परमात्मा सर्वव्यापक होकर सभी स्थानों में वास करता है।
⚔अष्टादश पुराणों के देवों में परस्पर विरोध
शिवपुराण में ब्रह्मा और विष्णु में परस्पर श्रेष्ठता और जगत् के स्वामी होने का युद्ध
श्रीशिवमहापुराण, विद्येश्वर संहिता, अध्याय ६
नन्दिकेश्वर उवाच
एवं हि वदतोस्तत्र मुग्धयोरजयोस्तदा ॥ ८ अहमेव वरो न त्वमहं प्रभुरहं प्रभुः । परस्परं हन्तुकामौ चक्रतुः समरोद्यमम् ॥ ९ युयुधातेऽमरौ वीरौ हंसपक्षीन्द्रवाहनौ । वैरञ्च्या वैष्णवाचैवं मिथो युयुधिरे तदा ॥ १०
नन्दिकेश्वर बोले – [ हे मुने!] उस समय वे - अजन्मा ब्रह्मा और विष्णु मोहवश 'मैं श्रेष्ठ हूँ, मैं स्वामी हूँ, तुम नहीं' - इस प्रकार बोलते-बोलते परस्पर एक-दूसरे को मारने की इच्छा से युद्ध करने के लिये उद्यत हो गये ॥ ८-९ ॥
हंस और गरुड पर आरूढ होकर वे दोनों वीर ब्रह्मा और विष्णु युद्ध करने लगे, तब ब्रह्मा और विष्णु के गण भी परस्पर युद्ध करने लगे ॥ १० ॥
शिव के शरभ अवतार ने विष्णु के नृसिंह अवतार को मार-मारकर की दुर्दशा
श्रीशिवमहापुराण, शतरुद्र संहिता, अध्याय १२
सहसैवाभयाद्विष्णुं स हि श्येन इवोरगम् । उत्क्षिप्योत्क्षिप्य संगृह्य निपात्य च निपात्य च ॥ १५ उड्डीयोड्डीय भगवान्पक्षघातविमोहितम्। हरिं हरस्तं वृषभं विवेशानन्त ईश्वरः ॥ १६
- जिस प्रकार गरुड निर्भयतापूर्वक साँप को कभी ऊपर, कभी नीचे पटकता है, कभी उसे लेकर उड़ जाता है, उसी प्रकार उन्होंने (शिव के शरभ अवतार ने) नृसिंह को अपने पंखों से मार-मारकर आहत कर दिया। फिर वे अनन्त ईश्वर उन नृसिंह को लेकर वृषभ पर सवार हो चल पड़े ॥ १५-१६ ॥
इस प्रकार यदि ये सभी ब्रह्मा, विष्णु और शिवादि देव एक ही ईश्वर होते, तो इनमें इस प्रकार ईर्ष्या-द्वेषवश, वैर-विरोध और मारने का प्रसंग दृष्टिगोचर न होता। इन देवों के परस्पर वैर-विरोध से और प्रत्येक के द्वारा स्वयं को ही सबसे बड़ा ईश्वर घोषित करने से कौन सत्य ईश्वर है? - इसका भी निर्णय नहीं किया जा सकता और न ही ये पौराणिक देव एक ही वेदोक्त ईश्वर सिद्ध होते, क्योंकि वेदों में ईश्वर ने देवों वा सज्जनों के लिए उपदेश किया है कि वह आपस में न लड़े और परस्पर प्रेमपूर्वक रहे, परंतु यदि ईश्वर और उसके रूप ही परस्पर लड़ाई-झगड़ा करेंगे, तब ईश्वर का लोगों को उपदेश देना ही व्यर्थ हुआ, क्योंकि वह स्वयं लड़ाई-झगड़ा करने वाला सामान्य मनुष्य की तरह सिद्ध हुआ।
प्रत्येक पुराण अपने-अपने देव को श्रेष्ठ बताता है और दूसरे को निम्न, अतः इन पुराणों में वेदों की तरह एक सर्वश्रेष्ठ देव की पूजा दृष्टिगोचर नहीं होती, जैसे शिवपुराण में शिव को ब्रह्म कहकर महिमा गायी गई है, और दूसरे देवों को जीव बताया गया है -
केवल शिव ही ब्रह्म और अन्य ब्रह्मा, विष्णु इत्यादि देवता जीव हैं
श्रीशिवमहापुराण, विद्येश्वर संहिता, अध्याय ५
तस्मात्ते निष्कले लिङ्गे नाराध्यन्ते सुरेश्वराः । अब्रह्मत्वाच्च जीवत्वात्तथान्ये देवतागणाः ॥ १४ तुष्णीं सकलमात्रत्वादर्च्यन्ते वेरमात्रके । जीवत्वं शङ्करान्येषां ब्रह्मत्वं शङ्करस्य च ॥ १५ वेदान्तसारसंसिद्धं प्रणवार्थे प्रकाशनात् । १६
- अतः सुरेश्वर (इन्द्र, ब्रह्मा) आदि देवगण भी निष्कल लिंग में पूजित नहीं होते हैं, सभी देवगण ब्रह्म न होने से, अपितु सगुण जीव होने के कारण केवल मूर्ति में ही पूजे जाते हैं। शंकर के अतिरिक्त अन्य देवों का जीवत्व और सदाशिव का ब्रह्मत्व वेदों के सारभूत उपनिषदों से सिद्ध होता है। वहाँ प्रणव (ओंकार) के तत्त्वरूप से भगवान् शिव का ही प्रतिपादन किया गया है॥ १४-१६ ॥
इसके विपरीत यदि देवीभागवत पुराण को देखें, तो उसमें देवी की महिमा गायी गई है और यह भी बताया है कि अन्य सभी देव निम्नकोटि के हैं और देवी की पूजा ही करते हैं। पद्मपुराण, भागवत और विष्णुपुराण को देखें, तो उसमें विष्णु और उसके अवतार राम और कृष्ण की महिमा गायी गई है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के मुख्य देव कृष्ण हैं।
इसके अतिरिक्त प्रत्येक पुराण सृष्टि की उत्पत्ति अपने-अपने देव से बताकर उसको सर्वश्रेष्ठ बताता है। इन सबके प्रमाण कभी आगे प्रकाशित किए जाएंगे। निष्कर्ष यही है कि पौराणिक परस्पर विरोधी देवों के स्थान पर वेदोक्त एक सर्वश्रेष्ठ ओ३म् मुख्य नाम वाले ईश्वर को मानकर उसकी ही उपासना की जाए, जिसके वेदों में गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार अन्य शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि आदि अनेक गौण नाम भी हैं।
॥ओ३म् शम्॥
